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________________ जयपराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद न जयः पराजयो' वा स्यात् । स्यान्मतं साधनवादिना साधु साधनं वक्तव्यं दूषणवादिना च तद्षणम् । तत्र वादिनः प्रतिवादिना सभायामसाधनाङ्गवचनस्योद्भावने साधु साधनाभिधानाज्ञानसिद्धेः 'पराजयः प्रतिवादिनस्तु तद्रूषणज्ञाननिर्णयाज्जयः स्यात्' इति, तदप्यपेशलं, 'विकल्पानुपपत्तेः । स हि प्रतिवादी निर्दोषसाधनवादिनो वचनाधिक्यमुद्भावयेत्साधना भासवादिनो वा? प्रथमविकल्पे वादिनः कथं साधनस्वरूपाज्ञानम् ? तद्वचने 11इयताज्ञानस्यवाभावात् । द्वितीयविकल्पे तु न प्रतिवादिनो दूषणज्ञानमवतिष्ठते, साधनाभासस्यानुद्धावनात्तद्विज्ञानासिद्धेः । 16तद्वचनाधिक्यदोषस्य ज्ञानाद्षणज्ञोऽसाविति चेत्साधनाभासाज्ञानाददूषणज्ञोपीति नैकान्ततो” वादिनं जयेत्, तददोषोद्भावनलक्षणस्य पराजयस्यापि पराजय हो जाता है और प्रतिवादी को तो साधन वचन के दूषण के ज्ञान का निर्णय होने से उसका जय हो जावेगा। जैन-आपका यह कथन भी ठीक नहीं है। यदि हम इस विषय में विकल्प उठावें तब तो आपका मत सिद्ध नहीं हो सकता है। यथा आप प्रतिवादी हम निर्दोष साधनवादी-निर्दोष हेतु को कहने वाले के वचनाधिक्य दोष को प्रकट करते हैं या साधनाभास वादी के वचनाधिक्य दोष को प्रगट करते हैं। यदि आप प्रथम विकल्प स्वीकार करें तब तो हम वादी को साधन के स्वरूप का अज्ञान कैसे रहा? क्योंकि उस हेतु के प्रयोग में हमें इयत्ता-संख्या के ज्ञान का ही अभाव है। यदि आप दूसरा विकल्प लेते हैं तो प्रतिवादी को दूषणज्ञान है ऐसी व्यवस्था नहीं बन सकती है क्योंकि वादी तो साधनाभास का प्रयोग करने वाला है और उसके साधनाभास दोष को तो आपने प्रकट नहीं किया इसलिये आप प्रतिवादी को साधनाभास का ज्ञान नहीं है यह बात सिद्ध हो जाती है। अर्थात् आप प्रतिवादी ने वादी के वचनाधिक्य दोष को ही प्रगट किया है किन्तु साधनाभास को नहीं प्रगट किया है अत: आपको साधनाभास का अज्ञान ही है। 1 ननु यदि पुनर्वचनाधिक्यदोषं साधनसामर्थ्यभावं चोद्भावयन् प्रतिवादी जयतीत्याशंकायामत्र वक्ष्यमाणमेवोत्तरं तदास्य महती द्विष्टकामितेत्यादिकं योजनीयं वादिनोक्तस्य सम्यकसाधनस्य सामर्थ्य वचनाधिक्यं चोभावयतः प्रतिवादिनो जय इति चायूक्तं तथा सति वादिनः साधनसामर्थ्याज्ञानसिद्धेस्तद्वचनेयत्ताज्ञानस्यैवाभावात् । न वचनाधिक्यमात्रम् । (दि० प्र०) 2 सौगतस्य। 3 स्वसाधनवादिनेति वा पाठः। 4 एवं च व्यवस्थायां सत्याम् । 5 साधर्म्यवचने प्रयुक्ते वैधर्म्यवचनं प्रयुज्यमानम् साधनाङ्ग वैपरीत्यं वा। 6 वादिन इत्युपरिष्टादन्वयः। 7 विचारणासंभवात् । (दि० प्र०) 8 वक्ष्यमाणाभ्यां विकल्पाभ्यां मतस्यानुपपत्तेः। 9 उदाहरणोपनयनिगमनादिवचनाधिक्यम् । 10 अग्नि: पक्षः । अनुपलब्धो भवतीति साध्यो धर्म्यः । द्रव्यत्वात् यथा जलमिति साधनाभासः । (दि० प्र०) 11 एतावन्मात्रं साधनवचनमात्रं ज्ञानं वर्तते इति नियमेन नास्ति अधिकज्ञानस्यापि वैधादे: संभवात् । (ब्या० प्र०) 12 दूषणं स्थापयेदिति प्रथमविकल्पः । (दि० प्र०) 13 स्वसाधनाभास इति पा० । (दि० प्र०) 14 साधनाभासविज्ञानासिद्धेः। 15 तेन हि प्रतिवादिना वचनाधिक्यरूपो दोष एवोद्भावितो न तु साधनाभासरूप इति साधनाभासज्ञानासिद्धिस्तस्य । 16 साधन । (ब्या० प्र०) 17 सर्वथा। (ब्या० प्र०) 18 साधनाभासे अदोषोद्भावनमेव लक्षणं यस्य तस्य । 19 (प्रत्युत)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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