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________________ २६५ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ९२) ॥१२॥ णौ यत्कृतं तत्सर्वं स्थानिवद् भवति ॥३५॥ 'णि' प्रत्यय पर में होने पर जो कार्य होता है उन सब का स्थानिवद्भाव होता है। यहाँ 'णौ' में निमित्तसप्तमी लेनी किन्तु विषयसप्तमी नहीं लेनी । उदा० 'स्फुरत् णि सन्, पुस्फारयिषति' । यहाँ 'स्फुर्' धातु से 'णि' प्रत्यय होगा तब, 'चिस्फुरोर्नवा' ४/२/१२ से 'स्फुर् धातु के 'उ' का 'आ' होगा अर्थात् ‘स्फार णि' होगा । यहाँ आत्व, णिनिमित्तक है, अतः वह असद्वत् होगा, अतः जब उससे सन् प्रत्यय होगा तब, 'सन्यङश्च' ४/ १/३ से 'स्फुर्' धातु के एकस्वरयुक्त आद्यांश का द्वित्व करते समय, 'णि' के कारण हुआ 'स्फा' असद्वद् होगा और 'स्फु' का ही द्वित्व होगा, बाद में 'अघोषे शिटः' ४/१/४५ से 'शिट्' का लोप होगा और 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी' ४/१/४२ से 'फु' का 'पु' होने पर पुस्फारयिषति' रूप सिद्ध होगा। ___णौ' में यदि विषयसप्तमी हो तो स्थानिवद्भाव नहीं होता है । उदा० 'श्वि' धातु से 'सन् परक णि' प्रत्यय आने से पूर्व ही, 'श्वेर्वा' ४/१/८९ से होनेवाला 'य्वृत्' अन्तरङ्ग कार्य होने से पहले ही हो जायेगा क्योंकि श्वेर्वा' ४/१/८९ की वृत्ति में 'सन्परे णौ विषये' ऐसी विषयसप्तमी की व्याख्या की गई है । अतः 'श्वि' का 'य्वृत्' करने पर 'शु' होगा। उसी 'शु' का 'सन्यङश्च' ४/१/३ से द्वित्व करते समय स्थानिवद्भाव नहीं होगा और 'शु' के स्थान पर 'श्वि' का द्वित्व नहीं होगा किन्तु 'शु' का ही द्वित्व होनेकी प्राप्ति है किन्तु उससे पूर्व णिनिमित्तक 'उ' की वृद्धि 'औ' होगी और उसका 'आव' होगा तो यहाँ 'शाव्' का द्वित्व नहीं होगा किन्तु 'शु' का ही द्वित्व होगा क्योंकि वृद्धि और 'आव्' आदेश णिनिमित्तक है । संक्षेप में 'वृत्' करते समय ‘णौ' में विषयसप्तमी है, जबकि 'वृद्धि' और आव्' आदेश करते समय णौ में निमित्तसप्तमी है । अतः 'श्वेर्वा' ४/१/८९ से हुए य्वृत् का स्थानिवद्भाव नहीं होगा किन्तु 'वृद्धिः स्वरेष्वादेः'- ७/४/१ से हुई वृद्धि और 'आव्' आदेश का स्थानिवद्भाव होगा और 'शु' का ही द्वित्व होगा। ___ यदि ‘णौ' में सामान्य सप्तमी ली जाय तो, यहाँ 'श्वि' में हुए य्वत् का भी स्थानिवद्भाव हो जाता तो, बाद में द्वित्व होने पर 'शिशावयिषति' ऐसा अनिष्ट रूप होता। इस न्याय का ज्ञापक ओर्जान्तस्थापवर्गेऽवणे' ४/१/६० सूत्र है। इसी सूत्र के कारण 'युक मिश्रणे' और 'पूग्श् पवने' धातु से 'सन्' प्रत्यय होने पर 'यियविषति, पिपविषति' रूप होते हैं। ये रूप सिद्ध करने के लिए 'ओर्जान्तस्था'- ४/१/६० सूत्र के स्थान पर सिर्फ ‘पयोऽवणे' किया होता तो भी 'यियविषति' और 'पिपविषति' रूप में द्वित्व होने के बाद 'उ' का 'इ' हो सकता है तथापि 'जुं गतौ' (सौत्र धातु), 'यौति, पुनाति' इत्यादि धातु से 'णि' होने के बाद 'सन्' प्रत्यय होने पर, 'जिजावयिषति, यियावयिषति, पिपावयिषति' इत्यादि प्रयोग में ण्यन्त 'जवति' इत्यादि धातु के 'उ' का 'इ' करने के लिए 'ओर्जान्तस्थापवर्गेऽवणे ४/१/६०, स्वरूप दीर्घ/बडे सूत्र की रचना की वह इस न्याय का ज्ञापन करता है। वह इस प्रकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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