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________________ २६४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) सूत्र के सामर्थ्य से व्यधिकरणपद बहुव्रीहि समास का स्वीकार करना चाहिए और बृहद्वृत्ति के वैसे वाक्य को केवल अर्थ बतानेवाला समझना चाहिए। . यही बात पाणिनीय परंपरा के 'आसन्नादूरा-'(पा.स. २/२/२५) सूत्र के महाभाष्य में चर्चित है। संक्षेप में स्वाभाविक संख्येयत्व के त्याग की अपेक्षा सूत्रविधान के सामर्थ्य से व्यधिकरण बहुव्रीहि की कल्पना करना उचित प्रतीत होता है। 'आसन्नदशा' के बारे में आगे चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि शायद 'दशन्' शब्द में संख्यानत्व है, ऐसा स्वीकार करके 'आसन्ना दश (सङ्ख्या ) येषां' ऐसा विग्रह करके समास करने पर भी, 'एकार्थ चाने च'३/१/२२ सूत्र से ही समास सिद्ध हो जाता है, तथापि आसन्ना'- ३/ १/२० से प्रतिपदसमास का विधान किया वह, प्रमाणीसङ्ख्याड्डः' ७/३/१२८ से 'ड' करने के लिए ही है, ऐसा इसी सूत्र की वृत्ति से ही स्पष्ट हो जाता है। अर्थात् इस समास में आचार्यश्री को 'दश' इत्यादि संख्या का संख्यानत्व अभिमत है किन्तु उन्होंने इस न्याय के अनित्यत्व का आश्रय नहीं किया है । अतः इसी 'आसन्नादूरा'-३/१/२० सूत्र से हुई द्वितीयादि विभक्ति के अर्थ में समास विधान के सामर्थ्य से ही इस प्रकार का विग्रह होता है। इसके लिए यहाँ केवल स्वाभाविक संख्येयत्व का त्याग किया है, उसका ही इसी सूत्र द्वारा ज्ञापन होता है किन्तु उससे इस न्याय को अनित्यता प्राप्त नहीं होती है और इसी सूत्र से इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन नहीं होता है क्योंकि ऊपर बताया उसी तरह यह न्याय केवल लोकप्रसिद्ध अर्थ का ही अनुवादक होने से, उसके अनित्यत्व की चर्चा निर्मूल है । यद्यपि लघुन्यास में 'आदशभ्यः सङ्ख्या सङ्ख्यानेऽपि वर्तते' ऐसा प्रायिक वचन है, अत: वह इस न्याय की अनित्यता के लिए पर्याप्त/उचित नहीं माना जा सकता है। इस न्याय का निष्कर्ष बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि बहुलाधिकार से सामान्यतया 'अष्टादश' पर्यन्त की संख्या केवल संख्येयवृत्ति है, जबकि उसके बाद की संख्या, संख्येयवृत्ति और संख्यानवृत्ति भी है और शब्दशक्ति से तथा लक्ष्यानुसार क्वचित् 'अष्टादश' पर्यन्त की संख्या, संख्यानत्व युक्त हो सकती है , किन्तु उसका निर्णय शास्त्रकार के वचन पर ही आधारित नहीं है। इस न्याय के न्यास में श्रीहेमहंसगणि ने 'आसन्ना दश' का अर्थ एकोनविंशतिः एकविंशतिः' तथा 'एकादश, द्वादश, त्रयोदश' इत्यादि किया है किन्तु वह उचित नहीं है और वही अर्थ बृहद्वृत्ति के अर्थ के साथ युक्तिसंगत भी प्रतीत नहीं होता है । आ.श्रीलावण्यसूरिजी ने बृहवृत्त्यनुसार उसका खंडन किया है । वही चर्चा अतिविस्तृत होने से ग्रन्थविस्तार के भय से यहाँ नहीं देते हैं । और शायद श्रीहेमहंसगणि की यह चर्चा/बात लघुन्यास के आधार पर हो ऐसा लगता है किन्तु विशेष विचार करने पर 'आसन्नादूरा- ३/१/२० सूत्र का इतना भाग त्रुटित हो ऐसा लगता है क्योंकि 'नवैकादश वेति पर्यायो विघटेत' इस प्रकार की शंका का उत्थापन करने के बाद उसका कोई समाधान नहीं दिया गया है। संक्षेप में इस न्याय को विशेषविधान के रूप में लोकप्रसिद्ध बात का ही अनुवादक मानना चाहिए । अतः उसके ज्ञापक या अनित्यत्व की कोई चर्चा करने की आवश्यकता नहीं रहती है। यह न्याय भी अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में संगृहीत नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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