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________________ उपमहापुरिसचरिय अर्थात् यहाँ जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें प्रचुर जन एवं धनसे युक्त, प्रमुदित ग्रामजनोंकी ऊँची आवाजवाला तथा जिसके खेतोंमें बिना प्रयत्नके ही धान्यकी निष्पत्ति होती है ऐसा काशी नामका देश आया हुआ है । उस देशमें सर्वत्र और सब समय दरिद्रोंके घरमेंसे भी मुसाफिरोंको दही-चावलका श्रेष्ठ भोजन निरन्तर मिलता है । ५८ इसके अतिरिक्त कृषिप्रधान भूमिके अर्थमें घटित हो सके ऐसा काशीदेशका दूसरा नाम कासभूमी (पृ. २१२ )भी यहाँ उपलब्ध होता है । इसमें भिन्न भिन्न विषयोंके प्राचीन शास्त्र तथा उनके प्रणेताओंके जो नाम मिलते हैं वे इस प्रकार हैं भरतका नाट्यशास्त्र, समुद्रका पुरुषलक्षणशास्त्र, चित्ररथका संगीतशास्त्र, नग्गइका चित्रकलाशास्त्र, धन्वन्तरिका आयुर्वेदशास्त्र, शालिभद्रका अश्वशास्त्र, विहाणका द्यूतशास्त्र, बुम्बुहका हस्तिशास्त्र, अंगिरसका युद्धशास्त्र, शबरका इन्द्रजालशास्त्र, arrant स्त्रीलक्षणशास्त्र, सेनापतिका शकुनशास्त्र, गजेन्द्रका स्वप्नलक्षणशास्त्र, नलका पाकशास्त्र और विद्याधरका पत्र - छेद्यशास्त्र (पृ. ३८ ) । प्रस्तुत ग्रन्थकार के पूर्व एवं अर्वाक्कालीन अनेक विद्वानोंने पादलिप्तसूरिकृत तरंगवतीकथाको एक सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक कृति कहा है । हमारे ग्रन्थकारने भी तरंगवती एवं आदि शब्दसे उस कक्षाकी अन्यान्य कृतियोंका स्मरण नीचेकी गाथामें किया है सा णत्थि कला तं णत्थि लक्खणं जं ण दीसइ फुडत्थं । पालित्तया इविरइयतरंगमइयाइसु कहासु ॥ (पृ. ३८ ) अर्थात् ऐसी कोई कला या लक्षण नहीं है जिसका अर्थ पादलित आदि विद्वानों द्वारा रचित तरंगवती आदि कथाओं में स्फुट न हुआ हो । मतलब कि तरंगवती आदि कथाएँ कलाशास्त्र एवं लक्षणशास्त्र से सर्वांग संपूर्ण थीं । ------ पृ. १०६ में मणि आदिके जलसे सर्व प्रकार के विषोंके मारणका उल्लेख आता है । कुक्कुडसप्प ( कुर्कुटसर्प ) एक ऐसा सर्प है जो उड़ता हो। ऐसे सर्पका उल्लेख २५० वे पृष्ठ पर आता है । उसमें कही गई एक योजनकी लम्बाईको अतिशयोक्ति मानें, तो भी इतना तो कहा जा सकता है कि इस प्रकारके प्राणिविज्ञानकी जानकारी अथवा तो कल्पना प्राचीनकालमें थी । बन्दरमें भी बुद्धिशक्ति और औषधोंके गुण-दोषका ज्ञान होता है यह बात पृ. ६० पर आती है 1 इसे भी प्राणिविज्ञानकी जानकारी कह सकते हैं । ऐसी भी धूप बनती थी जिससे कि सूँघनेवाले मनुष्यकी मृत्यु हो जाय (पृ. ३० ) । वर्ण-परावर्तन एवं चैतन्याच्छादन ( अचेतनकी भाँति निश्चेष्ट हो जाना ) के लिए विविध प्रकारकी गुटिकाओं का उपयोग होता था । यह बात पृ. १५४ तथा २२७-२८ में आती है । जैन आगमों के भाष्यों तथा व्याख्या- ग्रन्थोंमें भी स्वरभेद एवं वर्णभेदकारक गुटिकाओं का उल्लेख प्रचुरमात्रामें मिलता है । सम्पन्न व्यक्तिमें स्वाभाविक रूपसे समुन्नत मानव-सभ्यता के दर्शन होने चाहिए । इस वस्तुका प्रतिपादन धन सार्थवाहके एक प्रसंग पृ. ( ११ ) में उपलब्ध होता है वह प्रसंग इस प्रकार है धन सार्थवाहके एक प्रधान कर्मचारीसे एक वणिक् ईर्ष्यावश पूछता है कि तुम्हारे सार्थवाहके पास कितना धन है ? उसमें कैसे-कैसे गुण हैं ? वह क्या दे सकता है ? तब माणिभद्र अपने सेठका परिचय देते हुए कहता है कि हमारे स्वामिमें एक ही वस्तु है और वह है विवेकभाव और जो एक वस्तु नहीं है वह है अनाचार । अथवा दो वस्तुएँ हैं; परोपकारिता तथा धर्मकी अभिलाषा; जो दो वस्तुएँ नहीं हैं; गर्व एवं कुसंसर्ग । अथवा तीन वस्तुएँ उनमें हैं और तीन नहीं हैं। उनमें कुल, शील एवं रूप हैं, जबकि दूसरेको नीचा दिखाना, उद्धतता और परदारगामित्व नहीं हैं । अथवा उनमें धर्म, अर्थ, काम Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001442
Book TitleChaupannamahapurischariyam
Original Sutra AuthorShilankacharya
AuthorAmrutlal Bhojak, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages464
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size14 MB
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