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________________ धर्मपरीक्षा-२ ये ऽणुमात्रसुखस्यार्थे कुर्वते भोगसेवनम् । ते शङ्के शीतनाशाय भजन्ते कुलिशानलम् ॥२४ मृग्यमाणं हिमं जातु वह्निमध्ये विलोक्यते । संसारे न पुनः सौख्यं कथंचन कदाचन ॥२५ दुःखं वैषयिकं मढा भाषन्ते सुखसंज्ञया। विध्यातो दीपकः किं न नन्दितो भण्यते जनैः ॥२६ दुःखदं सुखदं जीवा मन्यन्ते विषयाकुलाः। कनकाकुलिताः किं न सवं पश्यन्ति काञ्चनम् ॥२७ संपन्नं धर्मतः सौख्यं निषेव्यं धर्मरक्षया। वृक्षतो हि फलं जातं भक्ष्यते वृक्षरक्षया ॥२८ २४) १. क सेवन्ते । २. क वज्रानलम् । २५) १. क अवलोक्यमानं-विचार्यमाणम् । २७) १. धत्तूराकुलाः । जो मूर्ख परमाणु प्रमाण सुखके लिए विषयभोगोंका सेवन करते हैं वे मानो शैत्यको नष्ट करनेके लिए वज्राग्निका उपयोग करते हैं, ऐसी मुझे शंका होती है। अभिप्राय यह है कि जैसे वज्राग्निसे कभी शीतका दुःख दूर नहीं किया जा सकता है वैसे ही इन्द्रियविषयोंके सेवनसे कभी दुःखको दूर करके सुख नहीं प्राप्त किया जा सकता है ॥२४॥ यदि खोजा जाय तो कदाचित् अग्निके भीतर शीतलता मिल सकती है, परन्तु संसारके भीतर सुख कभी और किसी प्रकारसे भी उपलब्ध नहीं हो सकता है ॥२५॥ मूर्ख जन विषयोंके निमित्तसे उत्पन्न हुए दुःखको 'सुख' इस नामसे कहते हैं। सो ठीक भी है-कारण कि क्या लोग बुझे हुए दीपक को 'बढ़ गया' ऐसा नहीं कहते हैं ? कहते ही हैं । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार व्यवहारी जन बुझे हुए दीपको 'बुझ गया' न कहकर 'बढ़ गया' ऐसा व्यवहार करते हैं उसी प्रकार अज्ञानी जन विषयसेवनसे उत्पन्न होनेवाले दुःखमें सुखकी कल्पना किया करते हैं ॥२६॥ विपयोंसे व्याकुल हुए प्राणी दुखदायीको सुख देनेवाला मानते हैं। ठीक भी हैधतूरेके फलको खाकर व्याकुल हुए प्राणी क्या सब वस्तुओंको सुवर्ण जैसा पीला नहीं देखते ? अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार धतूरे फलके भक्षणसे मनुष्यको सब कुछ पीला ही पीला दिखाई देता है उसी प्रकार विषयसेवनमें रत हुए प्राणीको भ्रान्तिवश दुख ही सुखस्वरूप प्रतीत होता है ॥२७॥ प्राणियोंको जो सुख प्राप्त हुआ है वह धर्मके निमित्तसे ही प्राप्त हुआ है। अतएव उन्हें उस धर्मकी रक्षा करते हुए ही प्राप्त सुखका सेवन करना चाहिए। जैसे-बुद्धिमान मनुष्य वृक्षसे उत्पन्न हुए फलको उस वृक्षकी रक्षा करते हुए ही खाया करते हैं ॥२८॥ २४) अ ब इ भजन्ति । २६) अ निंदितो । २७) अ इ दुःखं च, ब विषयं for दुःखदं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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