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________________ ३६) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, १०. पुच्छिदसिस्सस्स संदेहविणासणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपविट्ठसुद्धिसंजदेसु उवसमा खवा बंधा । अपुवकरणद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १०॥ ___ एदं पि देसामासियसुत्तं, बंधद्धाणं बंधसामि-असामिणो च अपुबकरणद्धाए अपढमअचरिमसमए बंधवोच्छेदं च भणिदूण सेसत्थे सूचिय अवठ्ठाणादो । अपुव्वकरणद्धाए पढमसत्तमभागे णिद्दा पयलाणं बंधो थक्कदि ति एत्थ वत्तव्यं । कधमेदं णबदे ? परमगुरूवएसादो । किमेदेसिं कम्माणं बंधो पुव्वं पच्छा सममुदएण वोच्छिज्जदि त्ति पुच्छाए णिच्छओ कारदे । एदेसिं बंधो पुव्वं विणस्सदि', पच्छा उदयस्स वोच्छेदो; अपुवकरणद्धाए पढमसत्तमभागे बंधे थक्के संते उवरि गंतूण खीणकसायस्स दुचरिमसमयम्हि उदयवोच्छेदादो । किं सोदएण परोदएण सोदय-परोदएण बज्झंति त्ति पुच्छाए वुच्चदे- एदाओ दो वि पयडीओ सोदय-परोदएण बझंति, णाणांतरायपंचकस्सेव एदासिं धुवोदयत्ताभावादो । किं शंकायुक्त शिष्यके सन्देहको दूर करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरणप्रविष्टशुद्धिसंयतोंमें उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरणकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्धव्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ १० ॥ यह भी देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि वह बन्धाध्वान, बन्धस्वामी-अस्वा मी तथा अपूर्वकरणकालके अप्रथम-अचरम समयमें होनेवाले बन्धव्युच्छेदको कहकर शेष अर्थीको सूचित कर अवस्थित है। अपूर्वकरणकालके प्रथम सतम भागमें निद्रा और प्रचला प्रकृतियोंका वन्ध रुक जाता है, ऐसा यहां कहना चाहिये। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान----यह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है । 'क्या इन दोनों कर्मोका बन्ध उदयसे पूर्व, पश्चात् अथवा साथमें व्युच्छिन्न होता है ? ' इस प्रश्नका निर्णय करते हैं --इनका बन्ध पूर्वमें नष्ट होता है, तत्पश्चात् उदयका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, अपूर्वकरणकालके प्रथम सप्तम भागमें बन्धके रुक जानेपर ऊपर जाकर क्षीणकषाय गुणस्थानके द्विचरम समयमें उदयका व्युच्छेद होता है। "दोनों कर्म प्रकृतियां क्या स्वोदय, क्या परोदय या क्या स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं ?' • इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं- ये दोनों ही प्रकृतियां स्वोदय-परोदयसे वंधती हैं, क्योंक, पांच ज्ञानाबरण और पांच अन्तरायके समान इन दोनों प्रकृतियोंके ध्रुवोदयका अभाव है। १ प्रतिषु ‘पुव्वं व णस्सदि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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