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________________ ३, ९.] ओघेण णिद्दा-पयलाणं बंधसामित्तपरूवणा [३५ गइपाओग्गाणुपुन्वि-उज्जोवे मिच्छाइट्ठी सासणो च तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधति । चउसंठाणचउसंघडणाणि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बंधति । अप्पसत्थविहायगइ दुभग दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि मिच्छाइट्ठी देवगईए विणा तिगइसंजुत्तं, सासणो देव-णिरयगईहि विणा दुगदिसंजुत्तं बंधदि । कदि गदिया सामिणो त्ति वुत्ते थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कादिपयडीणं बंधस्स चउग्गइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो सामी । बंधद्वाणं सासणचरिमसमए बंधवोच्छेदो च सुत्तणिद्दिट्टो त्ति ण पुणो वुच्चदे । किमेदासिं पयडीणं सादिओ बंधओ त्ति पुच्छासंबद्धो अत्था बुच्चद । तं जहा--- थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं बंधा मिच्छाइडिम्हि सादिओ अणादिओ धुवो अद्धवो च । सासणम्मि अणाइधुवेण विणा दुवियप्पो । सेसाणं पयडीणं बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सादिगो अद्धवो च । णिद्दा-पयलाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ९ ॥ एदं पुच्छासुतं देसामासियं, तेणेत्थ पुब्विल्लपुच्छाओ सव्वाओ पुच्छिदव्वाओ । तिर्यग्गतिप्रयोग्यानुपूर्वी और उद्योतको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं। चार संस्थान और चार सहननोंको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टितिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रको मिथ्यादृष्टि देवगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, और सासादनसम्यग्दृष्टि देव व नरक गतिके विना दो गतियोंसे संयुक्त बांधता है। कितने गतिवाले जीव स्वामी होते हैं, ऐसा कहनेपर उत्तर कहते हैं-स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुवन्धिचतुष्क आदि प्रकृतियोंके बन्धके चारों गतियोंवाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। बन्धाध्वान और सासादनके चरम समय में होने वाला बन्धयुच्छेद सूत्रसे निर्दिष्ट है, अतः उसे फिरसे नहीं कहते।। क्या इन प्रकृतियोंका सादिक बन्ध है ? ' इस प्रश्नसे सम्बद्ध अर्थको कहते हैं। वह इस प्रकार है-स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सादिक, अनादिक, ध्रुव और अध्रुव रूप होता है । सासादन गुणस्थानमें अनादि और ध्रुवके विना दो प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादन दोनों गुणस्थानोंमे सादिक व अध्रुव होता है । निद्रा और प्रचला प्रकृतियोंका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक ? ॥ ९॥ यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, अतएव यहां सब पूर्वोक्त प्रश्न पूछना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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