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________________ १४८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, २५.. उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २५६ ॥ कमेण अंतोमुहुर्ततरेण खवगसेढिं चडमाणबहुजीवे अस्सिदूण जहण्णकालादो संखेजगुणकालुवलंभा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २५७ ॥ एदस्स अत्थो सुगमो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥२५८ ॥ एवं पि सुगमं । अकसाईसु चदुट्ठाणी ओघं ॥२५९ ॥ कुदो ? सवेण वि पयारेण णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालगदविसेसाभावा । ___ एवं कसायमग्गणा समत्ता। णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी ओथं ॥२६०॥ उक्त जीवोंके उक्त कषायोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५६ ॥ क्योंकि, क्रमशः अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे क्षपकश्रेणी पर चढ़नेवाले बहुत जीवोंकी अपेक्षा जघन्य कालसे उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५७ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५८ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। अकषायी जीवोंमें अन्तिम चतुर्गुणस्थानी जीवोंका काल ओघके समान है ॥२५९॥ क्योंकि, सर्व ही प्रकारसे नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ठ कालयत कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई। ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओषके समान है ॥ २६० ॥ xxx अकषायाणां च सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८. २मानानुवादेन मयशानिश्रुताज्ञानिषु मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दृष्टयोः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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