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________________ [१४७ १, ५, २५५.] कालाणुगमे चदुकसाइकालपरूवणं कुदो ? तिण्हमुवसामगाणं मरणेण एगसमओवलंभा। ..... उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २५४ ॥ कुदो ? कसायाणमुदयस्स अंतोमुहुत्तादो उवरि णिच्छएण विणासो होदि ति गुरुवदेसा । दोण्णि तिण्णि खवा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्तं ॥२५५॥ एत्थ एगसमओ किण्ण लब्भदे ? उच्चदे- ण ताव कसायपरावत्तीए एगसमओ लब्भदि, खवगुवसामगे सकसायुदयस्स जहण्णकालस्स वि अंतोमुहुत्तपरिमाणुवदेसा । ण गुणपरावत्तीए वि एगसमओ, एगसमइयस्स कसायुदयस्स खवगुवसमसेढीसु अभावा । ण वाघादेण, खवगुवसमसेढीसु वाघादस्स पडिसेधा । ण मरणेण वि, खवगेसु मरणाभावा । तदो जहण्णकालेण णिच्छएण अंतोमुहुत्तेण होदधमिदि । क्योंकि, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय, इन तीनों उपशामक जीवोंके मरणके साथ एक समय पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५४ ॥ क्योंकि, कषायोंके उदयका अन्तर्मुहूर्त कालले ऊपर निश्चयसे विनाश होता है, इस प्रकार गुरुका उपदेश है। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, ये दो गुणस्थानवर्ती क्षपक तथा अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय, ये तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं ॥ २५५ ॥ . शंका-इन सूत्रोक्त क्षपक जीवोंके एक समयप्रमाण काल क्यों नहीं पाया जाता है? समाधान-उक्त आशंकापर उत्तर कहते हैं कि उक्त दोनों या तीनों गुणस्थानों में न तो कषायपरिवर्तनसे एक समय पाया जाता है, क्योंकि, क्षपक या उपशामकों में अपनी उदयागत कषायके उदयका जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही होता है, ऐसा आचार्य परम्पराका उपदेश है। और न गुणपरिवर्तनके द्वारा ही एक समयप्रमाण काल पाया जाता है, क्योंकि, एक समयवाले कषायके उदयका क्षपक और उपशम श्रेणियों में अभाव है । न व्याघातके द्वारा ही एक समय पाया जाता है, क्योंकि, क्षपक और उपशमश्रेणियों में व्याघातका प्रतिषेध पाया जाता है। और न मरणके द्वारा ही एक समय पाया जाता है, क्योंकि, क्षपकों में मरणका अभाव है। इसलिए यहां पर कषायोंका जघन्य काल निश्चयसे अन्तर्मुहूर्त ही होना चाहिए। - १xx द्वयोः क्षपकयोः केवललोभस्य च ४ सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, .. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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