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________________ १, ५, ११८.] कालाणुगमे एईदियकालपरूवणं [ ३९१ मेगजीवस्स उप्पत्तीए असंभवा । उक्कस्ससंखेन्जमेतं तस्स संखेज्जभागमेत्तं वा वारं जदि उप्पज्जदि तो वि असंखेज्जाणि वस्साणि होति त्ति वुत्ते ण होति, संखेज्जाणि वाससहस्साणि त्ति सुत्तण्णहाणुववत्तीदो तप्पाओग्गसंखेज्जवारुप्पत्तिसिद्धीए । अणप्पिदो बादरेइंदियपज्जत्तएसु संखेज्जाणि वाससहस्साणि उकस्सेण तत्थ परिभमिय पुणो अणपिदेसु णिच्छएण उप्पज्जदि त्ति भणिदं होदि । बादरेइंदियअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ११६ ॥ कुदो ? एदेसि सव्वद्धासु विरहाभावादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ११७ ॥ कुदो ? अपज्जत्तएसु जहणियाए आउद्विदीए तत्तियमेत्ताए' उवलंभा। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ११८ ॥ कुदो ? अणप्पिदिदिओ बादरेइंदियअपजत्तएसु उप्पज्जिय जदि वि संखेज्ज असंभव है। शंका-यदि कोई जीव बादर एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण वार, अथवा उसके संख्यातवें भागप्रमाण वार उत्पन्न होता है, तो भी असंख्यात वर्ष तो हो ही जाते हैं ? समाधान नहीं होते हैं, क्योंकि, यदि ऐसा न माना जाय, तो बादर एकेन्द्रिय . जीवोंका उत्कृष्ट काल 'संख्यात हजार वर्षप्रमाण है' यह सूत्र-वचन नहीं बन सकता है। इसलिए तत्प्रायोग्य संख्यातवार ही बादर एकेन्द्रियोंकी उत्पत्ति सिद्ध होती है। अविवक्षित कोई जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर संख्यातसहन वर्षप्रमाण अधिकसे अधिक काल तक उनमें परिभ्रमण करके पुनः अविवक्षित जीवोंमें निश्वयसे उत्पन्न होता है, यह अर्थ कहा गया समझना चाहिए । बादर एकेन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ११६ ॥ क्योंकि, सभी कालों में इन जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥११७॥ क्योंकि, लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें जघन्य आयुकी स्थिति उतनेमात्र अर्थात् क्षुद्रभव. ग्रहणप्रमाण ही पाई जाती है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ११८ ॥ क्योंकि, अविवक्षित इन्द्रियवाला कोई जीव बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें १ प्रतिषु । तत्तियमेसा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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