SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ११५. इदि गाहासुत्तादो। अंतोमुहुत्तं पि संखेजावलियमेत्तं चेव, तदो एदेसिं दोण्हं विसेसो णत्थि त्ति अंतोमुहुत्तवयणं सुत्तत्थं संदेहमुप्पादेदि त्ति' वुत्ते णत्थि संदेहो, खुद्दाभवग्गहणमभणिय अंतोमुहुत्तमिदि भणिदजिणाणादो ताणं विसेसो अत्थि त्ति अवगम्मदे । घादखुद्दाभवग्गहणादो बादरेइंदियपज्जत्तजहण्णाउअं संखेज्जगुणमिदि भणिदवेअणकालविधाणअप्पाबहुगादो य । बादरेइंदियपज्जत्तवदिरित्तो सधजहण्णाउअवादरेइंदियपज्जत्तएसु उप्पज्जिय अण्णत्थ गदे बादरेइंदियपज्जत्तस्स जहण्णकालो लब्भदि ति भणिदं होदि । उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि ॥ ११५॥ पुढविकाइएसु वावास वाससहस्साणि उक्कस्साउअं सुप्पसिद्धमत्थि । बादरेइंदियपज्जत्तभवहिदी असंखेज्जवासमेत्ता किण्ण होदि ति धुत्ते ण होदि, तत्थासंखेज्जवार इन गाथासूत्रोंसे जाना जाता है कि क्षुद्रभवका काल भी संख्यात आवलीप्रमाण होता है। शंका-अन्तर्मुहूर्त भी तो संख्यात आवलीप्रमाण ही होता है, इसलिए अन्तर्मुहूर्त भौर क्षुद्रभवग्रहण काल, इन दोनों में कोई भेद नहीं है। अतएव यह अन्तर्मुहूर्तका वचनरूप सूत्रार्थ सन्देहको उत्पन्न करता है? समाधान- इसमें कोई सन्देह नहीं है, क्योंकि, सूत्र में 'क्षुद्रभवग्रहण' ऐसा पाठ न करके 'अन्तर्मुहूर्त' ऐसा वचन कहनेवाली जिन-आज्ञासे उन दोनों में भेद जाना जाता है। तथा, 'घातक्षुद्रभवग्रहणकालसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवकी जघन्य आयु संख्यातगुणी है' इस प्रकारके कहे गये वेदनाकालविधानसम्बन्धी अल्पबहुत्वद्वारसे भी जाना जाता है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकसे व्यतिरिक्त किसी जीवके सर्व जघन्य आयुवाले बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर, पुनः अन्य पर्यायमें चले जाने पर, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका जघन्य काल पाया जाता है, ऐसा अर्थ कहा गया समझना चाहिए । एक जीवकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षे है ॥ ११५ ॥ पृथिवीकायिक जीवों में बाईस हजार वर्षकी उत्कृष्ट आयु सुप्रसिद्ध है। शंका-बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंकी भवस्थिति असंख्यात वर्षप्रमाण क्यों नहीं होती है ? समाधान नहीं होती है, क्योंकि, उनमें असंख्यातवार एक जीवकी उत्पत्ति १ प्रतिषु 'मुप्पादेत्ति ' इति पाठः। २ प्रतिषु जहण्णाउअ.' इति पाठः। ३ प्रतिषु मुत्तसिद्ध-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy