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________________ १, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिहिकालपरूवणं [३३५ एदेसु परियडेसु पोग्गलपरियट्टेण पयदं । कम्म-णोकम्मभेदेण दुविहो पोग्गलपरियट्टो, तत्थ केण पयद ? दोहि वि पयदं, दोण्हं कालभेदाभावा । सो वि कुदो अवगम्मदे ? पोग्गलपरियट्टप्पाबहुगे दो वि पोग्गलपरियट्टे एक्कट्ठ कादूण कालप्पाबहुगविधाणादो। एदस्स पोग्गलपरियट्टकालस्स अद्धं देसूर्ण सादि-सणिहणमिच्छत्तस्स कालो होदि । तं कधं? एगो अणादियमिच्छादिट्ठी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुधकरणं अणियट्टिकरणमिदि एदाणि तिणि करणाणि कादूग सम्मत्तंगहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुणेण पुचिल्लो अपरित्तो संसारो ओहट्टिद्ण परित्तो पोग्गलपरियदृस्स अद्धमेत्तो होदूग उक्कसेण चिट्ठदि। जहण्णेण अंतोमुहुत्तमेत्तो । एत्थ पुण जहण्णकालेण णत्थि कज्जं, उक्कस्सेण अधियारादो। सम्मत्तंगहिदपढमसमए णट्ठो मिच्छत्तपज्जाओ। कधमुप्पत्ति-विणासाणमेक्को समओ ? .......................................... इन ऊपर बतलाये गये पांचों परिवर्तनों से यहां पर पुद्गलपरिवर्तनसे प्रयोजन है। शंका-कर्म और नोकर्मके भेदसे पुद्गलपरिवर्तन दो प्रकारका है, उनमेंसे यहांपर किससे प्रयोजन है ? समाधान-यहां दोनों ही पुद्गलपरिवर्तनोंसे प्रयोजन है, क्योंकि, दोनोंके काल में भेद नहीं है। शंका- यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-पुद्गलपरिवर्तनकालके अल्पबहुत्य बताते समय दोनों ही पुद्गलपरिवर्तनोंको इकट्ठा करके कालका अल्पबहुत्वविधान किया गया है । इससे जाना जाता है कि दोनों पुद्गलपरिवर्तनोंके काल में भेद नहीं है। इस पुद्गलपरिवर्तनकालका कुछ कम अर्धभाग सादि-सान्त मिथ्यात्वका काल होता है। शंका-सादि-सान्त मिथ्यात्वका काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कैसे होता है ? समाधान-एक अनादि मिथ्यादृष्टि अपरीतसंसारी (जिसका संसार बहुत शेष है ऐसा ) जीव, अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, और अनिवृत्तिकरण, इस प्रकार इन तीनों ही करणों को करके सम्यक्त्व ग्रहणके प्रथम समयमें ही सम्यक्त्वगुणके द्वारा पूर्ववर्ती अपरीत संसारीपना हटाकर व परीतसंसारी हो करके अधिकसे अधिक पुद्गलपरिवर्तनके आधे काल प्रमाण ही संसारमें ठहरता है । तथा, सादि-सान्त मिथ्यात्वका काल कम से कम अन्तर्मुहूर्तमात्र है। किन्तु यहां पर जघन्यकालसे प्रयोजन नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट कालका अधिकार है । सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें ही मिथ्यात्व पर्याय नष्ट हो जाती है। __ शंका-सम्यक्त्वकी उत्पत्ति और मिथ्यात्वका विनाश इन दोनों विभिन्न कार्योंका एक समय कैसे हो सकता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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