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________________ छक्खंडागमै जीवट्ठाणं [१, ५, ४. सव्वासिं पगदीणं अणुभाग-पदेसंबंधठाणाणि । जीवो मिच्छत्तवसा परिभमिदो भावसंसारे ॥ २६ ॥ परियट्टिदाणि बहुसो पंच वि परियट्टणाणि जीवेण । जिणवयणमलभमाणेण दीदकाले अणंताणि ॥ २७ ॥ जह गेण्हइ परियट्ट पुरिसो अच्छादणस्स विविहस्स । तह पोग्गलपरियट्टे गेण्डइ जीवो सरीराणि ॥ २८ ॥ अदीदकाले एगस्स जीवस्स सव्वत्थोवा भावपरियट्टवारा । भवपरियडवारा अणतगुणा । कालपरियट्टवारा अणंतगुणा । खेत्तपरियट्टवारा अणंतगुणा । पोग्गलपरियड्वारा अणंतगुणा । सव्वत्थोवो पोग्गलपरियट्टकालो । खेत्तपरियट्टकालो अगंतगुणो। कालपरियकालो अणंतगुणो । भवपरियट्टकालो अणंतगुणो। भावपरियट्टकालो अणंतगुणो' । यह जीव मिथ्यात्वके वशीभूत होकर भावपरिवर्तनरूप संसार में परिभ्रमण करता हुआ सम्पूर्ण प्रकृतियों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंधस्थानोंको अनेकवार प्राप्त हुआ है॥२६॥ जिन-वचनोंको नहीं पा करके इस जीवने अतीतकालमें पांचों ही परिवर्तन पुनः पुनः करके अनन्तवार परिवर्तित किये हैं ॥ २७ ॥ जिस प्रकार कोई पुरुष नाना प्रकारके वस्त्रों के परिवर्तनको ग्रहण करता है, अर्थात् हतारता है और पहनता है, उसी प्रकारसे यह जीव भी पुदलपरिवर्तनकालमें नाना शरीरोंको छोड़ता और ग्रहण करता है ॥ २८ ॥ अतीतकाल में एक जीवके सबसे कम भावपरिवर्तनके वार है। भवपरिवर्तन के वार भावपरिवर्तनके वारोंसे अनन्तगुणे हैं। कालपरिवर्तनके वार भवपरिवर्तनके वारोंसे अनन्तगुणे हैं। क्षेत्रपरिवर्तनके वार कालपरिवर्तनके वारोंसे अनन्तगुणे हैं। पुद्गलपरिवर्तनके वार क्षेत्रपरिवर्तनके वारोंसे अनन्तगुणे हैं। पुद्गलपरिवर्तनका काल सबसे कम है। क्षेत्रपरिवर्तनका काल पुद्गलपरिवर्तनके कालसे अनन्तगुणा है। कालपरिवर्तनका काल क्षेत्रपरिवर्तनके कालसे अनन्तगुणा है। भवपरिवर्तनका काल कालपरिवर्तनके कालसे अनन्तगुणा है । भावपरिवर्तनका काल भवपरिवर्तनके कालसे अनन्तगुणा है। (इन परिवर्तनोंकी विशेष जानकारीके लिये देखो सर्वार्थसिद्धि २, १०, व गोम्मटसार जीवकांड गाथा ५६० टीका)। ............................. १ सव्वा पयडिविदिओ अणुभागपदेसबंधठाणाणि । मिच्छत्तसासवण य ममिदा पुण मावसंसारे । स. सि. १,१०. सर्वप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधयोग्यानि । स्थानान्यनुभूतानि भ्रमता भुवि भावसंसारे ॥ गो. जी. जी.प्र.५६०. २पंचविधे संसारे कर्मवशाग्जैनदर्शितं मुक्तेः। मार्गमपश्यन् प्राणी मानादुःखाकुले भ्रमति । गो. जी. ३ गो. जी. जी. प्र. ५६.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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