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________________ १, ३, ४. ] खेत्तागमे सयोगिकेवलिखेत्तपरूवणं [ ५१ १९६ । उड्डलोगपमाणं सत्तेत्तालीस सदघणरज्जूओ १४७ । उड्डलोगपमाणाणयणे सुत्तगाहामूलं मज्झेण गुणं मुहसहिदद्धमुत्सेधकदिगुणिदं । घणगणिदं जाज्जो मुदिंगसंठाणखेत्तम्हि ॥ १५ ॥ एदिस्से गाहाए अत्थो बुच्चदे - मूलं मुदिंगखेत्तस्स बुंधवित्थारं, मज्झेण मुदिंगमज्झपंचरज्जूहि सह, गुणं जुदं कादव्वं । मुहं मुदिंगमुहरूंधपमाणं, सहिदं मुदिंगमज्झेण जुदं काढूण, अद्धं अद्धं करिय समीकदं, उस्सेधकदिगुणिदं उस्सेधवग्गेण गुणिदे कदे, मुदिंगखेत्तफलं होदि । एदीए गाहाए अधोलोगघणगणिदमाणेज्जो । 'संपदि लोगपरंतदिवादवलय रुद्ध खेत्ताणयणविधाणं वुच्चदे- लोगस्स तले तिन्ह वादाणं बालं पादेकं वीससहस्सजोयणमेत्तं । तं सव्यमेगङ्कं कदे सहिजोयणसहस्सबाहलं मुह तलसमासअद्धं उस्सेधगुणं गुणं च वेहेण । घणगणि' जाणेज्जा वेत्तासणसंठिए खेत्ते ॥ १६ ॥ ऊर्ध्वलोकका प्रमाण एकसौ सैंतालीस १४७ घनराजु है । अब ऊर्ध्वलोकके प्रमाणको लाने के लिये नीचे सूत्रगाथा दी जाती है मूलके प्रमाणको मध्यके प्रमाणसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें मुखका प्रमाण जोड़कर आधा करो । पुनः इसे उत्सेधके वर्गसे गुणित करो । यह मृदंगाकार क्षेत्रमें घनफल लानेका गणित जानना चाहिये ॥ १५ ॥ अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं-मूल अर्थात् मृदंगक्षेत्र के बुभविस्तारको मृदंगक्षेत्रके मध्यविस्तार पांच राजुओंके साथ गुणित करके जोड़ दे । इसका तात्पर्य यह हुआ कि मुखको अर्थात् मृदगाकार क्षेत्र के मुखविस्तार के प्रमाणको मृदंगके मध्यविस्तार पांच राजुओं से सहित अर्थात् युक्त करके, आधा आधा करके समीकरण कर ले । अनन्तर उसे उत्सेधके वर्गसे गुणित करने पर मृदंगक्षेत्रका घनफल होता है । (देखो विशेषार्थ पृष्ठ २१ ) मुखके प्रमाण और तलभागके प्रमाणको जोड़कर आधा करे । पुनः इसे उत्सेधसे गुणित करके वेधसे गुणित करे। यह वेत्रासनके आकारवाले क्षेत्र में घनफल लानेकी प्रक्रिया जानना चाहिये ॥ १६ ॥ इस गाथाले अधोलोकका धमगणित ले आना चाहिये । अब लोकके पर्यन्त भागमें स्थित वातवलय से रुके हुए क्षेत्रके लानेकी विधिको बतलाते हैं- लोकके तलभागमें तीनों वायुओंमेंसे प्रत्येक वायुका बाहल्य वीस हजार योजन समानः । १ प्रतिपु ' गुणिदं ' इति पाठः । २ इत आरम्याप्रेतनो वातवलयप्ररूपकः प्रबन्धस्त्रिलोकप्रज्ञप्तेः प्रथमाधिकारगतेन अनेन प्रकरणेन शब्दशः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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