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________________ ५० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ४. केवली पुत्राहिमुह वा उत्तराहिमुहो वा समुग्धादं करेंतो जदि पलियंकेण समुग्धादं करेदि, तो कवाड हलं छत्तीसंगुलाणि होंति । अह जइ काउस्सग्गेण कवाडं करेदि, तो वारहंगुलबाहलं कवाडं होदि । तत्थ ताव पुन्त्राहिमुहकेवलिस्स कवाडखेत्ताणयणं भण्णमाणे चोदसरज्जुआयामं सत्तरज्जुविक्खंभं छत्तीसंगुलबाहलं खेत्तं ठविय मज्झे छेनूण एकखेत्तस्वरि विदियखेत्तं ठविदे बाहत्तरिअंगुल बाहलं जगपदरं होदि । काउस्सग्गेण द्विदकेवलिकवाड खेत्तं चउव्वीसंगुलबाहल्लं होदि । उत्तराहिमुहो होतॄण पलियंकेण समुग्धादगद केव लिकवाड खेत्तं छत्तीसंगुलबाहल्लं जगपदरं होदि । इयरस्स १२ बारहंगुल बाहल्लं, वेयणार विणा तिगुणत्ताभावा । एदं खेत्तं तेरासियकमेण तिन्हं लोगाणं पमाणेण कीरमाणे तेसिं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स पुण संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं होदि । पदरगदो केवली केवडि खेते, लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु । लोगस्स असंखेजदिभागं वादवलयरुद्ध खेत्तं मोत्तूण सेसबहुभागेसु अच्छदित्ति जं वुत्तं होदि । घणलोगपमाणं तेदालीसुत्तरतिसद ३४३ घणरज्जूओ । अधोलोगपमाणं छष्णवुदिसदघणरज्जूओ केवली जिन पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर समुद्धतिको करते हुए यदि पल्यंकासन से समुद्धातको करते हैं तो कपाटक्षेत्रका बाहल्य छत्तीस अंगुल होता है । और यदि कायोत्सर्गले कपाटसमुद्धात करते हैं तो बारह अंगुलप्रमाण वाढल्यवाला कपाटसमुद्धात होता है । इनमें से पहले पूर्वाभिमुख केवलीके कपाटक्षेत्र के लाने की विधिका कथन करनेपर चौदह राजु लंबे, सात राजु चौड़े और छत्तीस अंगुल मोटे क्षेत्रको स्थापित करके उसे चौदह राजु लंबाईमेंसे बीचमें सात राजुके ऊपर छिन्न करके एक क्षेत्रके ऊपर दूसरे क्षेत्रको स्थापित कर देने पर बहत्तर अंगुल मोटा जगप्रतर हो जाता है । और कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित हुए केवलीका कपाटक्षेत्र चौवीस अंगुल मोटा जगप्रतर होता है । उत्तराभिमुख होकर पल्यंकासन से समुद्धातको प्राप्त हुए केवलीका कपाटक्षेत्र छत्तीस अंगुल मोटा जगप्रतरप्रमाण होता है। तथा इतरका अर्थात् उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्गसे समुद्धातको करनेवाले केवलीका कपाटक्षेत्र बारह अंगुल मोटा जगप्रतरप्रमाण लंबा चौडा होता है, क्योंकि, वेदनासमुद्घातको छोड़कर जीवके प्रदेश तिगुने नहीं होते हैं । यह उपर्युक्त कपाटसमुद्धातगत केवलका क्षेत्र त्रैराशिकक्रमसे सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके प्रमाणरूप से करनेपर न तीन लोकों से प्रत्येक लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा है । प्रतरसमुद्वातको प्राप्त हुए केवली जिन कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण वातवलय से रुके हुए क्षेत्रको छोड़कर लोकके शेष बहुभागों में रहते हैं, यह इस कथनका अभिप्राय है । घनलोकका प्रमाण तीन सौ तेतालीस ३४३ घनराजु है । अधोलोकका प्रमाण एकसौ छ्यान्नवे १९६ घनराजु है । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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