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________________ ३९४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले तिसमऊणाए हिदीए अणुक्कड्डी झीयदि । एवं याव सादस्स जहणियाए हिदि त्ति । एवं यथा सादस्स' तथा मणुस०-देवग०-समचदु०वजरि०-मणुस०-देवग०तप्पाऑग्गाणु०-पसत्थवि०-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-जस०उच्चा० एस भंगो १५। ६५५. एत्तो असादस्स अणुकडिं वत्तइस्सामो । तं जहा–असादस्स जहणिया हिदी बंधमाणो' जाणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि विदियाए हिदीए ताणि च अण्णाणि च । एवं याव सागरोवमसदपुधत्तं ताणि च अण्णाणि च । एसा परूवणा कदमासिं ? असादबंधहिदीणं इमासिं एसा परूवणा । तं जहा -याओ हिदीओ बंधमाणो असादस्स जहण्णयं अणुभागं बंधदि तासिं हिदीणं एसा परूवणा । एदेसिं हिदीणं या उक्कस्सिया हिदी तिस्से याणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि तदो समउत्तराए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं विसमउत्तराए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो असादस्स जह० अणुभागबंधपाऑग्गाणं द्विदीणं याव उक्कसिया हिदी तिस्से हिदीए अणुक्कड्डी झीयदि । यम्हि असादस्स जहण्णयं अणुभागबंधपाओंग्गाणं डिदीणं उक्कस्सियाए हिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले समउत्तराए हिदीए कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है, उससे अनन्तर समयमें तीन समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। इस प्रकार सातावेदनीयकी जघन्य स्थिति प्राप्त होने तक कथन करना चाहिए । यहाँ जिस प्रकार सातावेदनीयकी अनुकृष्टि कही है, उसी प्रकार मनुष्यगति, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका यही भङ्ग जानना चाहिए। ६५५. आगे असातावेदनीयकी अनुकृष्टिको बतलाते हैं। यथा-असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिको बाँधनेवाले जीवके जो जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, दूसरी स्थितिको बाँधनेवाले जीवके वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार सौ सागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । यह प्ररूपणा किन स्थितियोंकी है? इन असातावेदनीय बन्ध स्थितियों की यह प्ररूपणा है। यथा-जिन स्थितियोंको बाँधते हुए असातावेदनीयका जघन्य अनुभाग बाँधता है उन स्थितियोंकी यह प्ररूपणा है। तथा इन स्थितियोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है उसके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उससे एक समय अधिक स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । इसी प्रकार दो समय अधिक स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्पोंके प्राप्त होने तक प्रत्येकके पूर्व-पूर्व अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । अनन्तर असातावेदनीयकी जो जघन्य अनुभागबन्धप्रायोग्य स्थितियोंमें उत्कृष्ट स्थिति होती है, उस स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण हो जाती है। जहाँ असातावेदनीयकी जघन्य अनुभागबन्धप्रायोग्य स्थितियोंमें उत्कृष्ट स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है, उससे अगले समयमें एक समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जहाँ एक समय १. ता० प्रतौ यथा सुदस्स तथा इति पाठः। २. ता० प्रतौ जहणियाए हिदिबंधमाणो इति पाठः। २. ता० प्रती एसपरूवणा कदमासि इति पाठः । ३. ता. प्रतौ एसपरूवणा कदमासि इति पाटः। ४. ता० प्रतौ तं जहा इति स्थाने प्रायः सर्वत्र तं यथा इति पाठः । ५. ता० प्रतौ हिदीए इति पाठो नास्ति । ६. ता० प्री-पाओग्गाणं हिदीए इति पाटः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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