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________________ २६ । महावीराष्टक-प्रवचन अनादिकाल से आत्म-स्वरूप के विनाश में लगे हुए उन चार घाति कर्मों का क्षय करके कैवल्यसूर्य उदित हुआ। केवलज्ञान, केवलदर्शन प्रकट हुआ। महावीर अर्हत् अवस्था को उपलब्ध हुए। अनवरत प्रकाशित धर्मदेशना सूर्योदय के साथ ही प्रकाश की किरणें फैल जाती हैं धरती पर । ऐसे ही अरहन्त होते ही भगवान् महावीर की धर्मदेशना प्रकाशित हुई । अनवरत होती ही रही-यावनिर्माण सम्प्राप्तिः । ऋजुबाला के समवसरण के तुरंत बाद भगवान् महावीर ने वहाँ से विहार किया, पावापुरी पधारे । वैशाख शुक्ला एकादशी के सूर्योदय के समय पावापुरी में समवसरण लगा है। इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित, मौर्य, अंकपित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास अपने युग के ख्यातिप्राप्त पंडित थे। उनके पांडित्य पर गौरव है समाज को। सैकड़ों शिष्य हैं हरेक के अपने-अपने। इन्द्रभूति के नेतृत्व में सब एकत्रित हुए और विराट् यज्ञ का आयोजन होने जा रहा था। हजारों पशुओं की बलि दी जाने वाली थी उस यज्ञ में। इसी बीच भगवान महावीर के समवसरण की सूचना मिली। यह भी सूचना मिली कि समवसरण क्या लगा है, धरती और आकाश एक हो उमड़ पड़े हैं। गौतम आदि सभी ग्यारह पंडित अपने ४४०० शिष्यों के साथ एक-एक गण के रूप में समवसरण में आते गए। भगवान् महावीर की वाणी प्रकाशित हुई। वाणी क्या थी, परमविशुद्ध चैतन्य, जो श्रेष्ठतम, उच्चतम शिखर है परम उपलब्धियों का, वहाँ से प्रवाहित हुई-अमृत की पावन गंगा। अद्भुत एवं दिव्य अमरता का दिव्य संदेश, विश्व-मैत्री का सर्वजनसुखाय संदेश है, आग्रह-मुक्त चिंतन का, स्याद्वाद का संदेश है उसके कल-कल निनाद में । भगवान् महावीर की दिव्य वाणी सुनी। सुनी क्या, उस पवित्र गंगा में स्नान किया, गहरे उतरे । निर्मलता ऐसी आई कि अन्तर्मन में अहिंसा और करुणा जगी। पशु-बलि के उस यज्ञ से हटकर भगवान् के श्रीचरणों में दीक्षित हुए। भगवान् से जो पाया वह इतना अद्भुत और दिव्य था कि गौतम अकेले ही पाकर नहीं रहे। धारा बही उनसे आगे, और आगे की ओर। हजारों के जीवन को अभयदान, जीवनदान मिला। वे सबके सब अभयदान देनेवाले दाता बने। भक्तराज भागेन्दु के अन्तश्चक्षु के सामने ऐसे ही समग्र दिव्य समवसरण चित्रपट की तरह आ रहे हैं। दिव्यता को भक्तिपूर्ण भावों से उतने ही ललित शब्दों में काव्य के रूप में प्रस्तुत किया है। 'यदीया.... भवतु मे'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001376
Book TitleMahavirashtak Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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