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________________ महावीराष्टक-प्रवचन | ७ - साक्षी के स्वरूप को उपमा के द्वारा स्पष्ट करते हुए सूर्य की उपमा दी है। सूर्य क्षितिज पर जब प्रात: काल दिनारंभ के समय उदित होता है तो उसके उदय होते ही सरोवरों में रातभर के मुरझाए हुए कमल-पुष्प खिल उठते हैं, महक उठते हैं। गुंजन करती हुई भ्रमरों की टोलियों का आगमन शुरू होता हैं। इस प्रक्रिया में आप देख सकते हैं कि सूर्य का क्या कर्तव्य है ? सूर्य की एकमात्र उपस्थिति रूप साक्षीभाव है। इस प्रकार के साक्षीभाव को यदि कर्ता के रूप में उपन्यस्त किया जाए, तो यह मात्र निमित्त कर्तृव्य है, प्रेरक कर्तृव्य नहीं है। ऐसा नहीं होता कि सूर्य कमल की एक-एक पंखुड़ी को खोल-खोलकर उसे खिलाने का प्रयत्न करता है। वह तो अपनी प्राकृतिक स्थिति के रूप में समय पर क्षितिज पर उपस्थित हो जाता है, प्रेरक रूप में कुछ नहीं करता। उसकी उपस्थति ही ऐसी है कि कमल अपने-आप खिलने लगते हैं। कमल के खिलने से सूर्य को हर्ष नहीं होता और किसी विशेष स्थिति में खिल नहीं पाते, तो वह अप्रसन्न नहीं होता है। वह तो तटस्थ भाव की स्थिति में एकस्वरूप बना रहता है। __ भगवान् महावीर भी ऐसे ही आध्यात्मिक सूर्य हैं। समय-समय पर उनके द्वारा देशना की ज्योतिस्वरूप प्रकाश की धारा प्रवाहित होती है। कुछ आत्माएं आत्म-बोध पाती हैं, कुछ नहीं भी पाती हैं। किंतु भगवान् महावीर न किसी पर प्रसन्न हुए, न किसी पर अप्रसन्न । वे हर स्थिति में तटस्थ रहे। अखंड वीतराग भाव में स्थित रहे । यह कितना महतो महीयान् तटस्थ साक्षीरूप वीतराग भाव है। यह विशुद्ध साक्षीभाव हर साधक के अंतर में जागृत हो और वह इस प्रकार स्वरूप एकत्व भाव में लीन होता हुआ प्रभु चरणों में अभ्यर्थना करता रहे कि यह अनंत साक्षी वीतराग निरंजन निर्विकार महावीर मेरे अंतर चक्षु में समाहित हो जाए अर्थात् मेरे अन्तस में महावीर जैसा ही वीतराग भाव जागृत हो जाए। *** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001376
Book TitleMahavirashtak Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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