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________________ ३२ अध्यात्म-प्रवचन सूत्र' और उसके भाष्य में परोक्ष के भेदों का भी कथन स्पष्टतया किया है। वाचक उमास्वाति ने परोक्ष के दो भेद किए हैं-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि में उपमान आदि प्रमाण का परोक्ष में अन्तर्भाव किया। आचार्य वादिदेव सूरि ने स्वप्रणीत 'प्रमाणनयतत्वालोक' में परोक्ष का स्पष्ट लक्षण करते हुए विस्तार के साथ उसके भेदों का भी कथन किया है। परोक्ष प्रमाण के कितने भेद हैं ? इस प्रश्न का उत्तर एक प्रकार से नहीं दिया जा सकता। कहीं पर परोक्ष प्रमाण के दो भेद किए गए हैं-अनुमान और आगम। और कहीं पर परोक्ष-प्रमाण के पाँच भेद किए गए हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। इन्हें सभी ने निर्विवाद रूप से परोक्ष प्रमाण स्वीकार किया है। परोक्ष प्रमाण के उक्त भेदों में सभी भेद और उपभेद समाहित हो जाते हैं। __स्मृति का अर्थ है-वह ज्ञान जो पहले कभी अनुभवात्मक था, और निमित्त मिलने पर जिसका स्मरण होता है। यद्यपि अनुभूतार्थ विषयक ज्ञान के रूप में स्मृति को सभी दर्शनों ने स्वीकार किया है, परन्तु उसे प्रमाण नहीं माना गया। जैन दर्शन स्मृति को भी प्रमाण मानता है। स्मृति को प्रमाण न मानने वालों का सामान्यतया कथन यही है, कि स्मृति अनुभव के द्वारा गृहीत विषय में ही प्रवृत्त होती है, इसलिए गृहीतग्राही होने से वह प्रमाण नहीं है। न्याय और वैशेषिक तथा मीमांसक और बौद्ध गृहीतग्राही को प्रमाण नहीं मानते हैं।जैनदार्शनिकों का कथन है, कि किसी भी ज्ञान के प्रामाण्य में प्रयोजक अविसंवाद होता है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष से जाने हुए अर्थ में विसंवाद न होने से वह प्रमाण माना जाता है, उसी प्रकार स्मृति से जाने हुए अर्थ में भी किसी प्रकार का विसंवाद नहीं होता। अतःस्मृति को प्रमाण मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती। और जहाँ स्मृति में विसंवाद आता है, वहाँ वह स्मृति न होकर स्मृत्याभास होती है। स्मृत्याभास को हम प्रमाण नहीं मानते। दूसरे विस्मरणादि रूप अज्ञान का वह व्यवच्छेद करती है, इसलिए भी स्मृति प्रमाण है। तीसरे अनुभव तो वर्तमान अर्थ को ही विषय करता है और स्मृति अनुभूत अर्थ को अतीत रूप से विषय करती है, अतः इस अर्थ में स्मृति अगृहीतग्राही होने से भी प्रमाण रूप है। उसे अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। परोक्ष प्रमाण का दूसरा भेद है-प्रत्यभिज्ञान। पूर्वोत्तरविवर्तवर्ती वस्तु को विषय करने वाले ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। बौद्ध प्रत्येक वस्तु को क्षणिक मानते हैं, अतः क्षणिकवादी होने के नाते वे प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण नहीं मानते। उनका कथन है कि पूर्व और उत्तर अवस्थाओं में रहने वाला जब कोई एकत्व ही नहीं है, तब उसको विषय करने वाला एक ज्ञान कैसे हो सकता है? यह वही है-यह ज्ञान सादृश्य विषयक है। क्योंकि भूतकाल की अनुभूत वस्तु तो उसी क्षण नष्ट हो गई, और अब वर्तमान में जो वस्तु है, वह उसके सदृश अन्य ही वस्तु है।अतः प्रत्यभिज्ञान उस भूतकाल की वस्तु को वर्तमान में नहीं देखता, अपितु उसके सदृश अन्य वस्तु को ही जान रहा है। अथवा वह प्रत्यक्ष और स्मरण रूप दो ज्ञानों का समुच्चय है। 'यह' इस अंश को विषय करने वाला ज्ञान तो प्रत्यक्ष है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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