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________________ प्रमाण-वाद ३१ आदि रूप से भेद पाए जाते हैं, उसी प्रकार जैन दर्शन में बहुत ही अधिक स्पष्ट रूप में आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान में अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान का कथन किया गया है। ___इसका अर्थ इतना ही है कि जैनदर्शन में प्रत्यक्ष के अवधि आदि तीन भेद किए गए हैं और आगे चलकर फिर प्रत्यक्ष के दो भेद किए गए-सकल और विकल। भले ही सकल और विकल भेद प्रत्यक्ष के किए गए हों, किन्तु उन तीनों में प्रत्यक्षत्व इस आधार पर है, कि इन तीनों ज्ञानों में इन्द्रिय-व्यापार और मनोव्यापार की आवश्यकता नहीं रहती। कुछ जैन-तर्क-ग्रन्थों में लोकसम्मत प्रत्यक्ष को समाहित करने के लिए प्रत्यक्ष के दो भेद किए हैं-पारमार्थिक प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय-सापेक्ष और मनःसापेक्ष ज्ञान को कहते हैं। वस्तुतः यह प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु व्यवहार मात्र के लिए इसे प्रत्यक्ष कहा गया है। परमार्थ-दृष्टि से तो आत्ममात्रसापेक्ष अवधि, मनःपर्याय और केवल-यह तीन ज्ञान ही पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। ___ जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण का दूसरा भेद परोक्ष है। यद्यपि बौद्ध तार्किकों ने परोक्ष शब्द का प्रयोग अनुमान के विषयभूत अर्थ में किया है, क्योंकि उन्होंने दो प्रकार का अर्थ माना है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष तो साक्षात क्रियमाण है और परोक्ष उससे भिन्न। परन्तु जैन दर्शन में परोक्ष शब्द का प्रयोग परापेक्ष ज्ञान में ही होता रहा है। प्रत्यक्षता और परोक्षता वस्तुतः ज्ञाननिष्ठ धर्म हैं। ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष होने पर ही अर्थ भी उपचार से प्रत्यक्ष और परोक्ष कहा जाता है। मैं यह अवश्य कहूँगा कि जैनदर्शन में प्रयुक्त परोक्ष शब्द का व्यवहार और उसकी परिभाषा दूसरों को कुछ विलक्षण-सी प्रतीत होती है, परन्तु वह इतनी स्पष्ट और यथार्थ है, कि सहज में ही उसका आर्थिक बोध हो जाता है। एक बात और है, परोक्ष की जैन दर्शन-सम्मत परिभाषा विलक्षण इसलिए भी प्रतीत होती है, कि लोक में इन्द्रिय व्यापार से सहित ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है और इन्द्रिय-व्यापार से रहित ज्ञान को परोक्ष। वास्तव में परोक्ष शब्द से यह अर्थ ध्वनित भी होता है। अतः आचार्य अकलंक देव ने परोक्ष की एक दूसरी परिभाषा रची है, और कहा है कि अविशद ज्ञान ही परोक्ष है। ऐसा जान पड़ता है, कि आचार्य अकलंक देव का यह प्रयत्न सिद्धान्त पक्ष का लोक के साथ समन्वय करने की दृष्टि से हुआ है। उत्तर काल के समस्त आचार्यों ने आगे चलकर परोक्ष के इसी लक्षण को अपनाया और अपने-अपने ग्रन्थों में प्रकारान्तर और शब्दान्तर से स्थान दिया। एक बात यहाँ पर और जान लेनी चाहिए कि आचार्य अकलंक देव से पूर्ववर्ती जिन आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में परोक्ष प्रमाण का निरूपण किया है, उनमें आचार्य कुन्दकुन्द और वाचक उमास्वाति मुख्य हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने परोक्ष का लक्षण तो कर दिया, परन्तु उसके भेदों का कोई निर्देश नहीं किया। वाचक उमास्वाति ने स्वप्रणीत 'तत्त्वार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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