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________________ प्रमाण-वाद २५ है। यह रूपवान् घट है' यह विकलादेश नय है। क्योंकि इसमें घट वस्तु का परिज्ञान रूपमुखेन हुआ है, जबकि 'घटोऽयम्' कहने से घट के समस्त धर्मों का समावेश उसमें हो जाता है। वस्तुगत किसी एक धर्म का अथवा किसी एक गुण का बोध करने के लिए नय की आवश्यकता है। यह जैन दर्शन की अपनी विशेषता है, जो अन्य दर्शनों में नहीं है। जैन दर्शन, क्योंकि अनेकान्त दर्शन है, और अनेकान्त दर्शन में प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक माना गया है। उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का यथार्थ बोध, प्रमाण और नय से ही किया जा सकता है। प्रमाण के स्वरूप के विषय में भी जैन दर्शन का अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण है। उसके प्रमाण का वर्गीकरण भी अन्य परम्पराओं से सर्वथा भिन्न शैली पर हुआ है। सामान्यतया प्रमाण का अर्थ है-जिसके द्वारा पदार्थ का सम्यक् परिज्ञान हो। शब्दव्युत्पत्ति की दृष्टि जो प्रमा का साधकतम करण हो, वह प्रमाण है। नैयायिक प्रमा में साधकतम इन्द्रिय और सन्निकर्ष को मानते हैं, परन्तु जैनदर्शन ज्ञान को ही प्रमा में साधकतम मानता है। प्रमा क्रिया एक चेतन क्रिया है, अतः उसका साधकतम करण भी ज्ञान ही हो सकता है, सन्निकर्ष नहीं, क्योंकि वह अचेतन है। जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण का लक्षण है-'स्व-पर-व्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्।' इस लक्षण में कहा गया है, कि स्व और पर का निश्चय करने वाला ज्ञान ही प्रमाण है। स्व का अर्थ है-ज्ञान और पर का अर्थ हैज्ञान से भिन्न पदार्थ। - जैन दर्शन उसी ज्ञान को प्रमाण मानता है, जो अपने आपको भी जाने और अपने से भिन्न पर पदार्थों को भी जाने। और वह भी निश्चयात्मक एवं यथार्थ रूप में। उपादेय क्या है? तथा हेय क्या है? और हेय उपादेय से भिन्न उपेक्षित क्या है ? इसका निर्णय करना ही प्रमाण की उपयोगिता है। परन्तु प्रमाण की यह उपयोगिता तभी सिद्ध हो सकती है, जबकि प्रमाण को ज्ञानरूप माना जाए। यदि प्रमाण ज्ञानरूप न होकर, अज्ञानरूप होगा, तो वह उपादेय एवं हेय का विवेक नहीं कर सकेगा। फिर प्रमाण की सार्थकता क्या होगी? प्रमाण की सार्थकता और उपयोगिता तभी है, जबकि उससे स्व और पर का परिज्ञान हो, साथ ही ज्ञेय के हान, उपादान एवं उपेक्षा का विवेक हो। ___न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमा का साधकतम करण सन्निकर्ष को माना है। परन्तु यह उचित नहीं है, क्योंकि सन्निकर्ष जड़ है।जो जड़ होता है, वह घट की तरह स्व और पर का निश्चय करने में असमर्थ होता है। क्या कभी घट को पता होता है कि मैं कौन हूँ, और ये मेरे आस-पास में क्या है? नहीं होता, क्योंकि वह जड़ है, चेतनाशून्य है, अतः वह घट प्रमा का साधकतम करण भी नहीं बन सकता है। न्याय दर्शन में इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध को सन्निकर्ष कहा है। वैशेषिक दर्शन भी सन्निकर्ष को प्रमाण मानता है। परन्तु ज्ञान रूप न होने से सन्निकर्ष की प्रमाणता का जैन-दर्शन में स्पष्ट निषेध किया गया है। प्रमाण का स्वरूप एवं लक्षण करते समय यह कहा गया है, कि प्रमाण निश्चयात्मक एवं व्यवसाय-स्वभाव होता है। परन्तु बौद्ध दर्शन में अव्यवसायी निर्विकल्पक ज्ञान को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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