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________________ २. प्रमाण-वाद मैं आज आप से प्रमाण के सम्बन्ध में चर्चा कर रहा हूँ। प्रमाण के बिना प्रमेय की सिद्धि नहीं होती । न्याय - शास्त्र का एक यह प्रसिद्ध सिद्धान्त है। प्रमाण से ही प्रमेय का यथार्थ परिज्ञान होता है। अतः भारतीय दर्शनशास्त्र में प्रमाण पर बहुत कुछ लिखा गया है। जैन, वैदिक और बौद्ध- समस्त दार्शनिकों ने प्रमाणवाद पर बड़ा बल लगाया है। भारतीय दर्शन की प्रत्येक शाखा में प्रमाण पर गंभीर चिन्तन और अनुशीलन किया गया है। न्याय दर्शन का तो मुख्य विषय ही प्रमाण है। वैशेषिक दर्शन में प्रमेय की बहुलता होने पर भी उसमें प्रमाणवाद को स्वीकार किया गया है। सांख्य दर्शन में भी प्रमाण पर पर्याप्त विवेचन किया गया है, किन्तु वैशेषिक की भाँति इसमें तत्व चर्चा अधिक है। योग तो क्रियात्मक प्रयोग पर ही खड़ा है, फिर भी उसमें प्रमाण चर्चा की गई है। मीसांसा और वेदान्त में भी प्रमाणवाद पर बहुत बल दिया गया हैं। भूतवादी चार्वाक को भी प्रमाण स्वीकार करना पड़ा। बौद्ध दर्शन में तो प्रमाणवाद ने बहुत ही गम्भीर रूप लिया है। बौद्ध दार्शनिकों के सूक्ष्म और पैने तर्क सुप्रसिद्ध हैं। जैन दर्शन में तो प्रमाणवाद पर संख्याबद्ध ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं। प्रमाण विषय पर भारतीय दर्शन की विभिन्न परम्पराओं में आज तक जो कुछ भी लिखा गया है, उसमें जैन दार्शनिकों का महान् योगदान रहा है । प्राचीन न्याय की परम्परा से लेकर नव्य युग के नव्यन्याय तक की परम्परा जैन दर्शन के प्रमाणवाद में सुरक्षित है। प्रमाण की मीमांसा में और प्रमाण की विचारणा में जैन दार्शनिक कभी पश्चात् पद नहीं रहे हैं। भारतीय दर्शन की प्रत्येक शाखा ने अपने-अपने अभिमत प्रमेय की सिद्धि के लिए प्रमाण को स्वीकार किया है, और अपने-अपने ढंग से उसकी व्याख्या की है। प्रमाण के स्वरूप में विभिन्नता होने पर भी प्रमाण की उपयोगिता के सम्बन्ध में सब एकमत हैं। भले प्रमाणों की संख्या किसी ने कम मानी हो और किसी ने अधिक मानी हो, पर उसकी आवश्यकता का अनुभव सबने किया है। प्रमेय की सिद्धि के लिए समस्त दर्शन प्रमाण को स्वीकार करते हैं। परन्तु जैन दर्शन प्रमाण के अतिरिक्त नय को भी वस्तु-परिज्ञान के लिए आवश्यक मानता है। जैन दर्शन में कहा गया है, कि वस्तु का यथार्थ अधिगम एवं परिबोध प्रमाण और नय से होता है । अतः वस्तु-परिज्ञान के लिए प्रमाण और नय दोनों की आवश्यकता है। दोनों में अन्तर यही है, कि प्रमाण वस्तु को अखण्ड रूप में ग्रहण करता है, अतः वह सकलादेश है। नय वस्तु को खण्ड रूप में ग्रहण करता है, अतः वह विकलादेश है। 'यह घट है' - यह सकलादेश प्रमाण २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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