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________________ 1 आकाओं की, मालिकों की रोटी-रोजी देने वालों की आवाज होती है । वह संसार का सबसे अधिक डरा हुआ व्यक्ति होता है । न उसे राम से कोई मतलब है, न रावण से । उसे तो अपने स्वार्थ से मतलब है । वह अपनी एक ही जबान से राम और रावण दोनों का एक समान जय-जयकार कर सकता है, इसमें उसे तनिक भी संकोच नहीं होता । - प्रस्तुत सन्दर्भ में एक लोक कथा है । एक राजा के दरबार में एक पण्डितजी आया करते थे । पूजा-पाठ करते, राजा के लिए स्वस्ति वाचन करते और यथाप्रसंग राजा की स्तुति भी । एक दिन राज दरबार में बैंगन की चर्चा चल पड़ी । राजा ने कहा -“ बैंगन बहुत अच्छी चीज है, स्वास्थ्य के लिए गुणकारी है ।" सबसे पहले पण्डितजी ने हाँ में हाँ मिलाई और विनम्रता के स्वर में कहा राजासाहब, आप बिल्कुल ठीक कहते हैं, इसी लिए तो बैंगन के सर पर मुकुट रखा है सृष्टिकर्ता ईश्वर ने । ” बैंगन के ऊपर वृंत से लगी जो टोपी-सी होती है, उसे पण्डितजी ने बैंगन का ईश्वर प्रदत्त मुकुट बताया । " राजा का चर्चा आगे चली, गुण-दोष की विचारणा होती रही । विचार पलट गया और बोला- “ अरे बैंगन तो बहुत ही खराब फल है । और पित्त बढ़ाता है, स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकर है । इसमें कुछ भी तो गुण नहीं ।" वात और कोई बोले कि न बोले । पण्डितजी झट बोल उठे “श्रीमान् जी, ठीक कहते हैं, शत-प्रतिशतं ठीक । बैंगन में दोष - ही दोष हैं, कोई एक भी तो गुण नहीं । इसीलिए तो भगवान ने इसका नाम ही बेगुन रखा है । " पण्डितजी ने बैंगन को बेगुन का अपभ्रंश रूप कर डाला। सभा विसर्जन के बाद पण्डितजी ज्योंही सभाभवन से बाहर आए, एक मुँह लगे साथी ने झट पण्डितजी को पकड़ा और कहा - ' वाह पण्डितजी, आज तो आपने कमाल कर दिया । एक ही मुँह से बैंगन की प्रशंसा भी और निन्दा भी । बात बदलते कुछ भी तो देर न की आपने । " पण्डितजी कहाँ चूकनेवाले थे । बोले - “ भइया, मुझे बैंगन की निन्दा या प्रशंसा से क्या लेना-देना है । मैं राजाजी का नौकर हूँ या बैंगन का ? राजा (२५१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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