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________________ अपेक्षाओं का पर्यवेक्षण धार्मिक क्षेत्र के गुरु या आचार्य हों अथवा सामाजिक क्षेत्र के नेता या अग्रणी हों, उन्हें संघ एवं समाज के वर्तमान तथा भविष्य की अपेक्षाओं का सतत पर्यवेक्षण करते रहना चाहिए। उन्हें निरन्तर देखना है कि क्या उचित है, क्या अनुचित है, क्या आवश्यक है, क्या अनावश्यक है, क्या उपयोगी है, क्या अनुपयोगी है । जो ठीक है, उसका संरक्षण करना है और जो ठीक नहीं है, उसे साहस के साथ काटकर साफ कर देना है । उसके स्थान पर यदि कोई अन्य उचित निर्णय अपेक्षित है, तो उसका विधान करना है | लोग क्या कहते हैं, यह नहीं देखना है । देखना है, सत्य एवं हित क्या कहता है | योग्य डाक्टर या वैद्य यह नहीं देखता है कि रोगी क्या कहता है, वह क्या खाना-पीना चाहता है । वह तो रोग और उसके प्रतिकार को लक्ष्य में रखकर कड़वी या मीठी जैसी भी औषधि हो, सुस्वादु या दुःस्वादु जैसा भी खान-पान हो, विधान कर देता है । चिकित्सक रोगी का अनुयायी बना कि सर्वनाश ! गुरु का दायित्व गुरु गुरु है, शिष्य नहीं है । गुरु अग्रणी है, उसे शिष्यों को अनुयायी बनाकर देश-कालानुसार उचित निर्णय लेने हैं और आगे चलना है । गुरु यदि शिष्यों के पीछे चलने लगा, उन अबोध लोगों की 'हां' में 'हां' और 'ना' में 'ना' करने लगा तो उसका गुरुत्व मर गया । तब वह गुरु न होकर अबोध, नेत्रहीन अंधे शिष्यों का शिष्य बन गया, उन्हें उसने गुरु बना लिया, इस अर्थ में वह स्वयं भी अन्धा बन गया | और तब गजब हो जाता है, जब अन्धे अन्धों का पथ प्रदर्शन करने लगते हैं । नेता और मिथ्याचार जब नेता और गुरु अनुयायी जनता की इच्छा पर चलने लगते हैं, तो अराजकता पैदा हो जाती है | जनता भीड़ है । उसका कोई एक मस्तिष्क नहीं होता । एक वर्ग कुछ कहता है, तो दूसरा वर्ग उसके विरुद्ध कुछ और ही राग अलापता है । अपनी-अपनी बात के लिए इतना हल्ला और शोरगुल होता है । कि कुछ पूछो नहीं । आये दिन इस सन्दर्भ में जो अभद्र दृश्य देखने को मिलते (२०३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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