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________________ . जनहिताय मसि-कृषि ___ यही बात लेखन के सम्बन्ध में थी। लेखन का भी दुरुपयोग हुआ भविष्य में । झूठे दस्तावेज लिखे गए । मिथ्या शास्त्र लिपिबद्ध हुए । हिंसा, विग्रह, वासनावर्द्धक ग्रन्थ रचे गए | यह सब हुआ | साथ ही अच्छा भी तो हुआ | लेखन बहुत बड़ी अपेक्षा थी मानव की । श्री ऋषभदेव ने उसकी तत्काल पूर्ति की । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिके 'पयाहियाएँ उवदिसई ' सूक्त के अनुसार प्रजा का हित संपादन,किया । असि और कृषि आदि में हिंसा होते हुए भी मानव प्रजा का हित भी है उसमें । जहाँ हित है, हितबुद्धि है, वहाँ पाप नहीं, पुण्य है। अत: ऋषभदेव ने राज्यशासन, वाणिज्य, लुहार, कुम्हार आदि के शिल्प-कर्म तथा युद्ध कला आदि के प्रशिक्षण द्वारा पुण्यकर्म ही किया, पाप-कर्म नहीं | उनके ये तत्कालीन निर्णय विश्व-जनहित में थे, जो आज भी अमुक सीमा-रेखाओं तक हैं। धर्म-शासन में क्रांति भगवान ऋषभदेव ने धार्मिक शासनतंत्र के नियम भी निर्धारित किए थे । अचेल-नग्नता आदि के रूप में वे कठोर थे। उनसे दूसरे नंबर पर आने वाले श्री अजित तीर्थंकर ने सचेल-सवस्त्र आदि का कोमल एवं व्यावहारिक विधान कर अपने युग में कठोर नियमों को अपदस्थ कर दिया । थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ यह परिवर्तित रूप तेईसवें भगवान पार्श्वनाथ तक चलता रहा । प्रश्न है, अजित ने कठोर व्रतों को कोमल क्यों बनाया ? एक समय की कठोर व्यवस्थाएँ भविष्य में अव्यवहार्य होकर दंभ का रूप ले लेती हैं । लोकलाज के कारण बाहर का खोल बना रहता है, किन्तु अन्दर में बिलकुल खोखला हो जाता है। यह ढोंग पाखण्ड बनता है, और पाखण्ड धर्म एवं समाज की पवित्रता एवं प्रामाणिकता को ले डूबता है । आवश्यक हो जाता है, धर्म एवं समाज के शासकों को कि वे कसे बन्धनों को कुछ ढीला करें। यही अर्थ है, अजितनाथजी दारा कठोर परंपरा को कोमल बनाने का । समय के अनरूप उनका यह उचित निर्णय था । यदि वे इस सोच-विचार में डूबे रहते कि आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का विधान कैसे बदला जाए | समाज में इसकी विपरीत प्रतिक्रिया होगी, यह तो भविष्य में शिथिलाचार का रूप ले सकता है, तो धर्म-संघ का क्या हाल हुआ होता ? जो आवश्यक है, उसको चालू करने का तत्काल निर्णय लो । क्या और क्यों के फेर में, यश और अपयश की उलझन में पड़े कि गए । अवसर निकल जाता है, पछतावा शेष रह जाता है । (१९८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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