SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 620
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जय-पराजयव्यवस्था ५७७ नापि वितण्डा तथानुषज्यते; जल्पस्यैव वितण्डारूपत्वात्, “स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा।" [न्यायसू० १।२।३] इति वचनात् । स यथोक्तो जल्पः प्रतिपक्षस्थापनाहीनतया विशेषितो वितण्डात्वं प्रतिपद्यते । वैतण्डिकस्य च स्वपक्ष एव साधनवादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षो हस्तिप्रतिहस्तिन्यायेन । तस्मिन्प्रतिपक्षे वैतण्डिको हि न साधनं वक्ति । केवलं परपक्षनिराकरणायैव प्रवर्तते इति व्याख्यानात् । पक्षप्रतिपक्षी च वस्तुधर्मावेकाधिकरणौ विरुद्धावेककालावन वसितौ। वस्तुधर्माविति वस्तुविशेषौ वस्तुनः । सामान्येनाधिगतत्वाद्विशेषतोऽनधिगतत्वाच्च विशेषावगनिमित्तो विचारः । एकाधि और इसी वजह से हेतु व्यभिचरित नहीं होता। वितंडा भी तत्वाध्यवसाय संरक्षण नहीं करता, क्योंकि वितण्डा जल्प के समान ही है "सप्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितंडा" जल्प के लक्षण में प्रतिपक्ष की स्थापना से रहित लक्षण कर देवे तो वितंडा का स्वरूप बन जाता है जिसमें प्रतिपक्ष की स्थापना नहीं हो ऐसा जल्प ही वितंडापने को प्राप्त होता है, वितंडा को करने वाला वैतंडिक का जो स्वषक्ष है वही प्रतिवादी की अपेक्षा प्रतिपक्ष बन जाता है, जैसे कि हाथी ही अन्य हाथी की अपेक्षा प्रति हाथी कहा जाता है । इसप्रकार वैतंडिक जो सामने वाले पुरुष ने पक्ष रखा है उसमें दूषण मात्र देता है किंतु अपना पक्ष रखकर उसके सिद्धि के लिये कुछ हेतु प्रस्तुत नहीं करता, केवल पर पक्ष का निराकरण करने में ही लगा रहता है। कहने का अभिप्राय यही है कि जल्प और वितंडा में यही अन्तर है कि जल्प में तो पक्ष प्रतिपक्ष दोनों रहते हैं किन्तु वितंडा में प्रतिपक्ष नहीं रहता, इस प्रकार आप योग के यहां जल्प और वितंडा के विषय में व्याख्यान पाया जाता है। अब यहां पर यह देखना है कि पक्ष और प्रतिपक्ष किसे कहते हैं, "वस्तुधमौं, एकाधिकरणौ, विरुद्धौ, एक काली, अनवसितौ पक्ष प्रतिपक्षौ” वस्तु के धर्म हो, एक अधिकरणभूत हो, विरुद्ध हो एक काल की अपेक्षा लिये हो और अनिश्चित हो वे पक्ष प्रतिपक्ष कहलाते हैं, इसको स्पष्ट करते हैं-वस्तु के विशेष धर्म पक्ष प्रतिपक्ष बनाये जाते हैं क्योंकि सामान्य से जो जाना है और विशेषरूप से नहीं जाना है उसी विशेष को जानने के लिये विचार [वाद विवाद] प्रवृत्त होता है, तथा वे दो वस्तु धर्म एक ही अधिकरण में विवक्षित हो तो विचार चलता है, नाना अधिकरण में स्थित धर्मों के विषय में विचार की जरूरत ही नहीं, क्योंकि नाना अधिकरण में तो वे प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy