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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे वयवोपपन्नत्वे च सति पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवत्त्वात्, यस्तु न तथा स न तथा यथाक्रोशादिः, तथा च वादः, तस्मात्तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ इति । न चायमसिद्धो हेतुः; "प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्ध : पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वाद:।" [ न्यायसू० १।२।१] इत्यभिधानात् । 'पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवत्त्वात्' इत्युच्यमाने जल्पोपि तथा स्यादित्यवधारणविरोधः, तत्परिहाराचं प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भत्वविशेषणम् । न हि जल्पे तदस्ति, "यथोक्तोपपन्नश्छलजाति निग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः ।" [ न्यायसू० १।२।२ ] इत्यभिधानात् । हो उसका संरक्षण करने में समर्थ होता है। हम सिद्ध करके बताते हैं-तत्वाध्यवसाय का रक्षण वाद द्वारा ही हो सकता है जल्प और वितंडा द्वारा नहीं, क्योंकि वाद चार विशेषणों से भरपूर है अर्थात् प्रमाण तर्क, स्वपक्ष साधन, परपक्षउपालंभ देने में समर्थ वाद ही है, यह सिद्धांत से अविरुद्ध रहता है, तथा अनुमान के पांच अवयवों से युक्त होकर पक्ष प्रतिपक्ष के ग्रहण से भी युक्त है, जो इतने गुणों से युक्त नहीं होता वह तत्वाध्यवसाय का रक्षण भी नहीं करता, जैसे आक्रोश-गाली वगैरह के वचन तत्व का संरक्षण नहीं करते । वाद प्रमाण तर्क इत्यादि से युक्त है अत: तत्वाध्यवसाय का संरक्षण करने के लिए होता है । . यह प्रमाण तर्क साधनोपालंभत्व इत्यादि विशेषण युक्त जो हेतु है वह प्रसिद्ध नहीं समझना, आप योग का सूत्र है कि "प्रमाण तर्क साधनोपालंभः सिद्धांताविरुद्धः पंचावयवोपपन्न: पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः' अर्थात् वाद प्रमाण तर्क साधनोपालंभ इत्यादि विशेषण युक्त होता है ऐसा इस सूत्र में निर्देश पाया जाता है, यदि इस सूत्र में “पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवत्व" इतना ही हेतु देते अर्थात् वादका इतना लक्षण करते तो जल्प भी इसप्रकार का होने से उसमें यह लक्षण चला जाता और यह अवधारण नहीं हो पाता कि केवल वाद ही इस लक्षण वाला है, इस दोष का परिहार करने के लिये प्रमाण तर्क साधनोपालंभयुक्त वाद होता है ऐसा वाद का विशेषण दिया है, जल्प में यह विशेषण होने पर भी प्रागे के सिद्धांत अविरुद्ध आदि विशेषण नहीं पाये जाते, जल्प का लक्षण तो इतना ही है कि-"यथोक्तोपपन्नश्छलजाति निग्रहस्थान साधनोपालंभो जल्पः" अर्थात् प्रमाण तर्क आदि से युक्त एवं छल जाति निग्रहस्थान साधन उपालंभ से युक्त ऐसा जल्प होता है, अत: वादका लक्षण जल्प में नहीं जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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