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________________ पृ० ११. पं० १०] टिप्पणानि । १२९ पृ० ११. पं० १०. 'अभिधेयप्रयोजनम् शान्त्या चार्य ने खकीय वार्तिककी प्रथम कारिकाको 'आदिवाक्य' मान करके कहा है कि इस वाक्यसे ग्रन्थकारने ग्रन्थके अभिधेयके प्रयोजनका अभिधान किया है । अत एव हम यहाँ आदिवाक्यके विषयमें कुछ चर्चा करें सो अनुपयुक्त न होगा। आदिवाक्य के विषयमें निम्नलिखित मुद्दों पर विचार करना इष्ट है(१) आदिवाक्यका खरूप और स्थान । (२) आदिवाक्यकी चर्चाका प्रारंभ कब हुआ। (३) आदिवाक्यका प्रतिपाय । (१) आदिवाक्यका प्रयोजन । (५) आदिवाक्यके विषयमें अनेकान्त । (१) ग्रन्थकार जब लिखने बैठता है तब कुछ न कुछ प्रारम्भमें लिखेगा ही । उसके आदिवाक्य होने पर भी यहाँ उस एक वाक्य या अनेक वाक्योंके समुदायरूप महावाक्यको 'आदिवाक्य' कहना इष्ट है जिसमें ग्रन्थके अभिधेयादिका प्रतिपादन किया गया हो। वैसा आदिवाक्य प्रन्थके प्रारम्भमें या मङ्गलके अनन्तर मी लिखनेकी प्रथा है । प्राचीन सूत्रग्रन्थोंमें विना मङ्गलके ही आदिवाक्य उपलब्ध होते हैं और बादमें मङ्गल करना जब आवश्यक माना जाने लगा तब मंगलके अनन्तर भी कुछ अन्यकारोंने आदिवाक्यका उपन्यास किया है। प्राचीन कालसे प्रन्योंके आदिवाक्य दो प्रकारके मिलते हैं(अ) सामान्यतः विषयप्रतिपादक । (ब) विशेषतः विषयप्रतिपादक । (अ) सामान्यतः विषयप्रतिपादक वाक्यमें प्रतिपाय विषयका विभागशून्य सामान्य कपन होता है । अर्थात् ऐसे वाक्योंमें प्रतिपाद्य विषयका सामान्यरूपसे नामकरण मात्र होता है । ऐसे वाक्य हम प्राचीन श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्रोंमें तथा दार्शनिक सूत्रग्रन्थोंमें पाते हैं । जैसे-"अय विध्यव्यपदेशे सर्वक्रत्वधिकारः" लाट्यायनश्रौ० । “अथातो गृहस्सालीपाकानां कर्म"- पारस्करगृ० । “अथातो धर्म व्याख्यास्यामः" -वैशे० इत्यादि । (ब) विशेषतः विषयप्रतिपादक वाक्योंमें संक्षिप्त किन्तु विभागपूर्वक विषयनिर्देश होता है। जैसे - "अयातो दर्शपूर्णमासौ व्याख्यास्यामः -आपस्तम्बत्रौतसूत्र; "प्रमाणप्रमेयसंशय” इत्यादि न्यायसूत्र; "लक्षणं चावृतिस्तत्त्वं" इत्यादि 'मध्यान्तविभाग' की प्रथम कारिका; "प्रमाणं खपराभासि" इत्यादि न्याया० का प्रथम श्लोक इत्यादि । (२) ऊपर हम देख चुके कि श्रौतसूत्रके कालमें मी आदि वाक्यकी रचना तो होती थी। किन्तु श्रौतसूत्रकी बात तो जाने दें दार्शनिक सूत्रग्रन्थोंमें मी आदिवाक्यकी चर्चा .. " शाबेदारम्भणीयं कमवृत्तित्वाद्वाचः प्रथममवश्यं किमपि वाक्यं प्रपोकम्यम्..." इत्यादि न्यायमं० पृ०६। २. श्लोकपाका०२।प्रमाणसं.का०२।लपी० का.३न्यायमं० पृ० १. का०५। इत्यादि। न्या०१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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