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________________ १२८ टिप्पणानि । [४० ११. पं० ८द्रव्यनमस्कार किया जाय वही सफल है । कोरा द्रव्य नमस्कार निष्फल होता है । द्रव्य नमस्कार न मी हो किन्तु भाव नमस्कार हो तब भी वह फलदायी है। प्रस्तुत में शान्त्या चार्य जिन भगवान को पश्चरूप से नमस्कार करने की बात कहते हैं । यद्यपि यह उल्लेख उन के द्रव्य नमस्कार का ही है फिर भी वह भावनमस्कारपूर्वक ही होगा ऐसा समझना चाहिए। उन्हों ने अपने भाव नमस्कार की सूचना भगवान के गुणवर्णनसे दी है। द्रव्य नमस्कार जिन पांच रूप से किया जाता है उन का वर्णन वंदन कप्र कीर्ण क में है "दो जाणू दोण्णि करा पंचमगं होइ उत्तमंगं तु।। पणिवाओ पंचंगो भणिओ सुत्तटुदिट्ठीहिं॥" वंदन०१४। अर्थात् प्रणाम पांच अंगों से किया जाता है । दो हाथ, दो जानु और मस्तक इन पांच अंगों के संकोचन से द्रव्य नमस्कार होता है। पृ० ११. पं० ८. 'अन्यार्थवत्तेति' इस पद्य में शा त्या चार्य ने सज्जनों को निर्मत्सर होकर अपने ग्रन्थ की परीक्षा करने को कहा है। यह एक पुरानी प्रथा का अनुकरण मात्र है। महाकवि कालिदास ने भी ऐसा ही अपनी कृति 'रघुवंश' में किया है'; और का लि दास के बाद भी यही प्रथा बराबर चालू रही। __'अपूर्वार्थक होने से ग्रन्थ की रचना अनावश्यक है, क्यों कि वह खरुचिविरचित होने से सत्पुरुषों के आदर योग्य नहीं । यदि पूर्वप्रसिद्धार्थक ग्रन्थकी रचना करते हो तब तो और मी अनादरणीय है, क्यों कि पिष्टपेषण होनेसे व्यर्थ है' इन आक्षेपों का समाधान आचार्य विथा नन्द ने अपने त स्वार्थ श्लोक वार्तिक में दिया है (पृ० २. पं० २२)। शान्त्या चार्य ने भी 'अन्यार्थवत्ता' शब्द से उपर्युक्त दोनों आक्षेपों का उल्लेख किया जान पाडता है । क्यों कि इस शब्द का 'अन्य अर्थ से युक्तता' अर्थात् अपूर्वार्थकत्व और 'अन्यों के अर्थसे युक्तता' अर्थात् पूर्वार्थकता ऐसे दोनों अर्थ स्पष्टतया फलित होते हैं। शान्त्या चार्य ने इन आक्षेपों का उत्तर दिया है कि दूसरों ने इसी बात को सामान्य रूप से कही है और मैंने उसे अन्यथा अर्थात् विशेष रूप से कहा है । अतएव मेरा कथन मात्र भपूर्वार्थक भी नहीं और मात्र पूर्वार्थक भी नहीं । सत्पुरुषों को चाहिए कि वे इस की परीक्षा करें। इस के साथ जयन्त के ये शब्द तुलनीय हैं - __"कुतो वा नूतनं वस्तु वयमुस्प्रेक्षितुं क्षमाः। बचोविन्यासवैचिध्यमात्रमत्र विचार्यताम् ॥"-न्यायमं०पू०१।। "आदिसर्गात्प्रभृति वेदवदिमा विद्याः प्रवृत्ताः, संक्षेपविस्तरविवक्षया तु तांस्तांस्तत्र कर्तनाचक्षते"-पृ०५। इन्हीं का अनुकरण हे म चन्द्रा चार्य ने 'प्रमाण मीमांसा' के प्रारंभ में किया है-पृ० १ । पृ० ११. पं० ८ 'अन्यार्थ' तुलना-यद्यपूर्वार्थमिदं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकं न तदा वक्तव्यम्, सतामनादेयत्वप्रसंगात्, स्वरुचिविरचितस्य प्रेक्षावतामनादरणीयत्वात् । पूर्वप्रसिद्धार्थे तु सुतरामतन्न घाच्यम् , पिष्टपेषणवद्वैयर्थ्यात्-इति वाणं प्रत्येतदुच्यते"। इत्यादि तत्त्वार्थश्लो० पृ० २ पं० २२, प्रमेयक० पृ० ६. पं० ५। .. विशेषा० २८५८,२८५९। २. "वं सन्त श्रोतुमर्हन्ति सदसद्वयक्तिहेतवः" रघु० १.१० । 1. "सन्तः प्रणयिवाक्यानि गृहन्ति मानसूयवः श्लोकषा०३, न्यायमं०पृ०१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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