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________________ प्रस्तावना। २. आगमोत्तरसाहित्यमें जैन दर्शन प्रास्ताविक जैन आगम और सिद्धसेनके बीचका जो जैन साहित्य है उसमें दार्शनिक हासे उपयोगी साहित्य आचार्य कुन्दकुन्दका तथा वाचक उमाखातिका है। जैन आगमोंकी प्राचीन टीकाओंमें उपलब्ध नियुक्तियोंका स्थान है । उपलब्ध नियुक्तियोंमें प्राचीनतर नियुक्तियोंका समावेश हो गया है और अब तो स्थिति यह है कि प्राचीनतर अंश और भद्रबाहुका नया अंश इन दोनोंका पृथक्करण कठिन हो गया है। आचार्य भद्रबाहुका समय मान्यवर मुनिश्री पुण्यविजयजीने वि० छठी शताब्दीका उत्तरार्ध माना है । यदि इसे ठीक माना जाय तब यह मानना पडता है कि नियुक्तियाँ अपने मौजुदा रूपमें सिद्धसेनके बादकी कृतियाँ हैं । अत एव उनको सिद्धसेन पूर्ववर्ती साहित्यमें स्थान नहीं । भाष्य और चूर्णियाँ तो सिद्धसेनके बादकी हैं ही । अतएव सिद्धसेन पूर्ववर्ती आगमेतर साहित्यमेंसे कुन्दकुन्द और उमाखातिके साहित्यमें दार्शनिक तस्वकी क्या स्थिति थी- इसका दिग्दर्शन यदि हम करलें तो सिद्धसेनके पूर्वमें जैनदर्शन की स्थितिका पूरा चित्र हमारे सामने उपस्थित हो सकेगा और यह हम जान सकेंगे कि सिद्धसेनको विरासतमें क्या और कितना मिला था ! (अ) वाचक उमाखातिकी देन प्रास्ताविक वाचक उमाखातिका समय पं० श्री मुखलालजीने तीसरी चौथी शताब्दी होनेका मंदाज किया है । आ० कुन्दकुन्दके समयमें अमी विद्वानोंका एकमत नहीं । आचार्य कुन्दकुन्दका समय जो मी माना जाय किन्तु तस्वार्थ और आ० कुन्दकुन्दके प्रन्थगत दार्शनिकविकासकी ओर यदि ध्यान दिया जाय तो वा० उमाखातिके तत्वार्थगत जैनदर्शनकी अपेक्षा आ० कुन्दकुन्दके ग्रन्थगत जैनदर्शनका रूप विकसित है यह किसी भी दार्शनिकसे छिपा नहीं रह सकता। अत एव दोनोंके समय विचारमें इस पहलूको मी यथायोग्य स्थान अवश्य देना चाहिए । इसके प्रकाशमें यदि दूसरे प्रमाणोंका विचार किया जायगा तो संभव है दोनोंके समयका निर्णय सहजमें हो सकेगा। प्रस्तुतमें दार्शनिक विकासक्रमका दिग्दर्शन करना मुख्य है भतएव आचार्य कुन्दकुन्द और पाचकके पूर्वापरभावके प्रश्नको अलग रख कर ही पहले वाचकके तत्त्वार्थके आश्रयसे जैनदार्शनिक तस्वकी विवेचना करना प्राप्त है । और उसके बाद ही आ० कुन्दकुन्दकी जैनदर्शनको क्या देन है उसकी चर्चा की जायगी । ऐसा होनेसे क्रमविकास कैसा हुआ है यह सहज ही में ज्ञात हो सकेगा। दार्शनिक सूत्रोंकी रचनाका युग समाप्त हो चुका था और दार्शनिक सूत्रों के भाष्योंकी रचना मी होने लगी थी किन्तु जैनपरंपरामें अभी तक सूत्रशैलीका संस्कृत अन्य एक भी नहीं बना था । इसी त्रुटिको दूर करनेके लिये सर्वप्रथम वा० उमाखातिने तत्वार्यसूत्र की रचना की । उनका तत्वार्थ जैन साहित्यमें सूत्रशैलीका सर्वप्रथम प्रन्थ है इतना ही नहीं किन्तु जैन महावीर जैन विचाडबरमतमारक. १.१९९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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