SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 763
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार धवलाकार ने प्रकृत सूत्र के ही विरुद्ध होने से उपर्युक्त आचार्य के उस व्याख्यान को असंगत ठहराया है। (५) इसी वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बादरनिगोद द्रव्यवर्गणा की प्ररूपणा के प्रसंग में वह किस क्रम से वृद्धिंगत होकर जघन्य से उत्कृष्ट होती है, इसे धवला में स्पष्ट किया गया है व उसे जघन्य से उत्कृष्ट असंख्यातगुणी कहा गया है । गुणकार का प्रमाण पूछने पर उसे जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र निर्दिष्ट किया गया है। इसी प्रसंग में आगे धवला में कहा गया है कि कुछ आचार्य गुणकार के प्रमाण को आवली का असंख्याता भाग कहते हैं, पर वह घटित नहीं होता है। कारण यह है कि आगे यहीं पर चूलिकासूत्र' में उत्कृष्ट बादर निगोदवर्गणा में अवस्थित निगोदों का प्रमाण जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र कहा गया है। इस प्रकार आचार्यों का वह कथन उस चूलिकासूत्र के विरुद्ध पड़ता है। और सूत्र के विरुद्ध आचार्यों का कथन प्रमाण नहीं होता है, अन्यथा अव्यवस्था का प्रसंग अनिवार्य होगा। इस प्रकार यहाँ धवलाकार ने चूलिकासूत्र के विरुद्ध होने से किन्हीं आचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणकार सम्बन्धी अभिमत का निराकरण करते हुए जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही गुणकार को मान्य किया है। इसी प्रकार के अन्य भी कितने ही प्रसंग धवला में पाये जाते हैं जिनका धवलाकार ने सूत्र के विरुद्ध होने से निराकरण किया है। परस्पर-विरुद्ध सूत्रों के सभाव में धवलाकार का दृष्टिकोण धवलाकार के समक्ष ऐसे भी अनेक प्रसंग उपस्थित हुए हैं जहां सूत्रों में परस्पर कुछ अभिप्रायभेद रहा है। ऐसे प्रसंगों पर धवलाकार ने कहीं दोनों ही सत्रों को प्रमाणभत मानने की प्रेरणा की है, तो कहीं पर उपदेश प्राप्त कर उनकी सत्यता-असत्यता के निर्णय करने की प्रेरणा की है । कहीं उनमें समन्वय करने का प्रयत्न किया है, तथा कहीं पर आगमानुसारिणी युक्ति के बल पर अपना स्वतंत्र अभिप्राय भी व्यक्त कर दिया है । यथा (१) जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में मनुष्यगति के प्रसंग में क्षपण विधि की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है कि अनिवृत्तिकरणकाल में संख्यातवें भाग के शेष रह जाने पर स्त्यानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रत्याख्यानावरणअप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि रूप आठ कषायों का क्षय करता है । यह सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत का उपदेश है। किन्तु कषायप्राभूत के उपदेशानुसार आठ कषायों के क्षय को पूर्व में और तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर स्त्यानगुद्धि आदि सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है। इस प्रसंग में धवलाकार ने अवसरप्राप्त जिन अनेक शंकाओं का समाधान किया है उनमें एक यह भी शंका रही है कि आचार्यकथित सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत और कषायप्राभूत की सूत्ररूपता कैसे सम्भव है। १. बादरणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाणं । -५,६,६३६ (पु० १४, पृ० ४६३-६४) २. देखिए, धवला, पु० १४, पृ० १११ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy