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________________ है, क्योंकि वैसा होने पर अव्यवस्था का प्रसंग प्राप्त होता है।' __ इस प्रकार यहाँ धवलाकार ने सूत्र के विरुद्ध जाने से उपर्युक्त परिकर्म के कथन को अग्राह्य घोषित किया है। यहीं पर आगे धवला में उपपादगत सासादनसम्यग्दृष्टियों के स्पर्शन का प्रमाण कुछ कम ग्यारह बटे चौदह (११/१४) भाग कहा है। उसे स्पष्ट करते हुए आगे धवलाकार ने कहा है कि नीचे छठी पृथिवी तक पांच राजु और ऊपर आरण-अच्युत कल्प तक छह राजु तथा आयाम व विस्तार एक राजु-यह उनके उपपादक्षेत्र का.प्रमाण है। इसके आगे धवला में यह कहा गया है कि कुछ आचार्य कहते हैं कि देव नियम से मूल शरीर में प्रविष्ट होकर ही मरते हैं। उनके इस अभिप्राय के अनुसार प्रकृत उपपादक्षेत्र का प्रमाण कुछ कम दस बटे चौदह राजु होता है। उनका यह व्याख्यान यहीं पर आगे सूत्र में जो कार्मणकाययोगी सासासनसम्यग्दृष्टियों के स्पर्शनक्षेत्र का प्रमाण ग्यारह बटे चौदह भाग कहा गया है। उसके विरुद्ध जाता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए। - इसी प्रसंग में आगे यह भी कहा है कि जो आचार्य देव सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, वे ऐसा कहते हैं । उनके अभिमतानुसार वह उपपादस्पर्शनक्षेत्र बारह बटे चौदह भाग प्रमाण होता है । यह व्याख्यान भी सत्प्ररूपणा' और द्रव्यप्रमाणानुगम सूत्र के विरुद्ध है, इसलिए उसे भी नहीं ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार धवलाकार ने सूत्रविरुद्ध होने से इन दोनों अभिमतों का निराकरण किया है। (४) वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी के प्रकृतिविकल्पों की प्ररूपणा के प्रसंग में कहा गया है कि कुछ आचार्य यह कहते हैं कि तिर्यक्प्रतर से गणित घनलोक प्रमाण तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी के विकल्प एक-एक अवगाहना के होते हैं। इस सम्बन्ध में धवलाकार ने कहा है कि उनका यह व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि यह प्रकृत सूत्र के विरुद्ध है। कारण यह कि इस सूत्र में ‘राजुप्रतर से गुणित घनलोक' का निर्देश नहीं है, जिससे उनका उपर्युक्त व्याख्यान सत्य हो सके। १. धवला, पु० ४, पृ० १५५-५६; ऐसा ही प्रसंग जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में भी प्राप्त हुआ है। पर वहाँ धवलाकारले 'रूवाहियाणि' में 'स्वेण अहियाणि रूवाहियाणि' ऐसा समास न करके 'रूवेहि अहियाणि रूवाहियाणि' ऐसा समास करते हुए उक्त परिकर्मसूत्र के साथ विरोध का परिहार भी कर दिया है । देखिए पु० ३, पृ० ३६ २. (कम्मइयकायजोगीसु) सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदि भागो । एक्कारह चोद्दसभागा देसूणा ।-सूत्र १,४,६७-६८ (पु. ४, पृ० २७०) ३. एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया असण्णि पंचिदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइट्रि ट्ठाणे ।-सूत्र १,१,३६ (पु० १, पृ० २६१) ४. सूत्र १,२,७४-७६ (पु० ३, पृ० ३०५-०७) ५. देखिए धवला, पु० ४, पृ० १६५ ६. तिरिक्खगइ पाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ लोओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडियाओ पयडीओ। --सूत्र ५,५,११८; पु० १३, पृ० ३७५-७५ ७०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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