SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 760
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्गणा, वर्गणासमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व (५,६,६६) । इनमें 'वर्गणा' अनुयोगद्वार में वर्गणानिक्षेप व वर्गणानय विभाषणता आदि जिन १६ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है (सूत्र ५,६,७०) उनमें से मूलग्रन्थकार के द्वारा वर्गणानिक्षेप और वर्गणानयविभाषणता इन दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गयी है। तत्पश्चात् पूर्वोक्त वर्गणा व वर्गणाद्रव्यसमुदाहार आदि आठ अनुयोगद्वारों में से वर्गणाद्रव्यसमुदाहार में वर्गणाप्ररूपणा व वर्गणानिरूपणा आदि जिन चौदह अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है (५,६,७५) उनमें सूत्रकार ने यहां वर्गणाप्ररूपणा और वर्गणानिरूपणा इन दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है, शेष वर्गणाध्र वाध्र वानुगम व वर्गणासान्त रनिरन्तरानुगम आदि बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा नहीं की है।' __ इस पर धवला में यह शंका उठायी गयी है कि उपर्युक्त चौदह अनुयोगद्वारों में मात्र दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करके सूत्रकार ने शेष बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा क्यों नहीं की है। उन्होंने उनसे अनभिज्ञ रहकर उनकी प्ररूपणा न की हो, यह तो सम्भव नहीं है, क्योंकि वे चौबीस अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारंगत रहे हैं। इससे यह तो नहीं कहा जा सकता है कि उन्हें उन अनुयोगद्वारों का ज्ञान न रहा हो । इसके अतिरिक्त यह भी सम्भव नहीं है कि विस्मरणशील होने से उन्होंने उनकी प्ररूपणा न की हो, क्योंकि वे प्रमाद से रहित थे, अतः उनका विस्मरणशील होना भी सम्भव नहीं है। ___ इसके समाधान में धवलाकार कहते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्वाचार्यों के व्याख्यानक्रम का परिज्ञान करने के लिए सूत्रकार ने उन बारह अनुयोगद्वारों को प्ररूपणा इस पर पुन: यह शंका उपस्थित हुई है कि अनुयोद्वार-अनुयोगद्वारों के मर्मज्ञ महर्षिउसी प्रसंग में वहाँ के समस्त अर्थ की प्ररूपणा संक्षिप्त वचनकलाप के द्वारा किसलिए करते हैं। इसके समाधान में वहां धवला में यह कहा गया है कि वचन योगस्वरूप आस्रव के द्वारा आनेवाले कर्मों के रोकने के लिए वे प्रसंगप्राप्त समस्त अर्थ की प्ररूपणा संक्षिप्त शब्दकलाप के द्वारा किया करते हैं ___इस प्रकार से धवलाकार ने सूत्रकार के प्रति आस्था रखते हुए सूत्रप्रतिष्ठा को महत्त्व देकर जो सूत्रगत पुनरुक्ति और सूत्र निर्दिष्ट विषय की अप्ररूपणा के विषय में प्रसंगप्राप्त शंकाओं का समाधान किया है, उसमें कुछ बल नहीं रहा है। प्रकृत में जो धवलाकार ने उपर्युक्त शंका के समाधान में यह कहा है कि पूर्वाचार्यों के व्याख्यानक्रम को दिखलाने के लिए और वचनयोगरूप आस्रव से आनेवाले कमों के निरोध के लिए उन बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वहां नहीं की गयी है उसमें पूर्वाचार्यों के व्याख्यान की पद्धति वैसी रही है, यह कषायप्राभत के चूर्णिसूत्रों के देखने से भी स्पष्ट प्रतीत होता है। पर ऐसे अप्ररूपित विषयों की प्ररूपणा का भार प्रायः व्याख्यानाचार्यों आदि के ऊपर छोड़ा दिया जाता था। पर यहाँ ऐसा कछ संकेत नहीं किया गया है। १. ष०ख० सूत्र ५,६,७५-११६ (पु० १४, पृ० ५३-१३५) २. धवला, पु० १४, पृ० १३४-३५ ७०६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy