SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 759
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवदान कर्म यहाँ प्रकृत क्यों है, इसका कारण स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि कर्मानुयोगद्वार में उसी समवदान कर्म की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। प्रकारान्तर से आगे वहाँ यह भी कहा गया है-अथवा संग्रहनय की अपेक्षा यहाँ उस समवदानकर्म को प्रकृत कहा गया है। किन्तु मूलतन्त्र' में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, आधाकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म इन छह कर्मों की प्रधानता रही है, क्योंकि वहाँ उनकी विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। ___इतना स्पष्ट करते हुए आगे धवलाकार ने उक्त छह कर्मों को आधारभूत करके क्रम से सत्, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है। प्रसंग के अन्त में वहां धवला में यह शंका की गयी है कि सूत्र (५,४,२) में कर्म की प्ररूपणा के विषय में जिन कर्मनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है, उनमें से यही कर्मनिक्षेप और कर्मनयविभाषणता इन दो ही अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गयी है, शेष चौदह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उपसंहारकर्ता (भूतबलि) ने क्यों नहीं की, उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए थी। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उन चौदह अनुयोगद्वारों के आश्रय से कर्म को प्ररूपणा करने पर पुनरुक्त दोष का प्रसंग प्राप्त होता था, इसलिए उनके आश्रय से कर्म को प्ररूपणा नहीं की गयी है। ___इस पर पुनः शंका हुई है कि यदि ऐसा है तो फिर महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में उन अनुयोगद्वारों के आश्रय से उसकी प्ररूपणा किसलिए की गयी है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि मन्दबुद्धि जनों के अनुग्रह के लिए प्रकृत प्ररूपणा करने में पुनरुक्त दोष नहीं होता। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि कहीं भी अपुनरुक्त अर्थ की प्ररूपणा नहीं है, सर्वत्र पुनरुक्त और अपुनरुक्त की ही प्ररूपणा उपलब्ध होती है। इस प्रकार धवलाकार ने इधर तो यह भी कह दिया है कि षट्खण्डागम में जो उन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा नहीं की गयी है वह पुनरुक्त दोष की सम्भावना से नहीं की गयी है, और उधर महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में जो उन्हीं अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की गयी है वहाँ उसके करने में उसी पुनरुक्त दोष की असम्भावना को भी उन्होंने व्यक्त कर दिया है। यदि मन्दबुद्धि जनों के अनग्रहार्थ महाकर्मप्रकृतिप्राभूत में उनकी प्ररूपणा की गयी है तो फिर उन्हीं मन्दबुद्धि जनों के अनग्रहार्थ उनकी प्ररूपणा इस षट्खण्डागम में भी की जा सकती थी। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, जीवस्थान के अन्तर्गत प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका और वर्गणाखण्डगत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में पुनरुक्त दोष को कुछ महत्त्व नहीं दिया गया है। (३) इसी वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार अधिकारों की प्ररूपणा करते हुए प्रसंगप्राप्त बन्धनीय (वर्गणा) अधिकार में वर्गणाओं के अनुगमनार्थ सूत्र में ये आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य रूप में निर्दिष्ट किये गये हैं १. 'मूलतन्त्र' से सम्भवतः महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का अभिप्राय रहा है। २. देखिए धवला, पु० १३, पृ० ६१-१६५ ३. वही, पृ० १६६ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy