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________________ उनके आश्रय से जो अन्तर दिखलाया गया है वह घटित नहीं होता। इस पर यह पूछने पर कि उनमें अवधिज्ञान और उपशमसम्यक्त्व सम्भव नहीं है यह कहाँ से जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह "पंचेन्द्रियों में उपशमाता हुआ गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता है, सम्मूछेनों में नहीं" इस चूलिकासूत्र' से जाना जाता है। इस प्रकार यहां उपर्युक्त चूलिकासूत्र के आश्रय से धवलाकार ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि सम्मर्छन जीवों में उपशमसम्यक्त्व सम्भव नहीं है। (५) जीवस्थान-अल्पबहुत्वानुगम में ओघअल्पबहुत्व के प्रसंग में संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि सबसे स्तोक निर्दिष्ट किये गये हैं। -सूत्र १,८,१८ धवला में इसके कारण का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि अणुव्रत सहित क्षायिक सम्यग्दष्टि जीव अतिशय दुर्लभ हैं। इसका भी कारण यह है कि तिर्यचों में क्षायिकसम्यक्त्व के साथ संयमासंयम नहीं पाया जाता है, क्योकि उनमें दर्शनमोहनीय की क्षपणा सम्भव नहीं है, इस पर तिर्यंचों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा सम्भव नहीं है, यह कहाँ से जाना जाता है, यह पूछने पर धवलाकार ने कहा है कि 'दर्शनमोहनीय की क्षपणा को नियम से मनुष्यगति में किया जाता है' इस सूत्र से जाना जाता है।" ___ इस प्रकार तिर्यंचों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा को प्रारम्भ नहीं किया जा सकता है, यह अभिप्राय धवला में उपर्युक्त सूत्र (कषायप्राभूत) के आश्रय से प्रकट किया गया है। यहां सत्र के महत्त्व को प्रकट करने वाले ये पांच उदाहरण दिये गये हैं। वैसे समस्त धवला में ऐसे प्रचुर उदाहरण उपलब्ध होते हैं। सूत्र-प्रतिष्ठा (पुनरुक्ति दोष का निराकरण) मल सूत्रों में कहीं-कहीं पुनरुक्ति भी हुई है। इसके लिए शंकाकार द्वारा जहाँ-तहां पुनरुक्ति दोष को उद्भावित किया गया है। किन्तु धवलाकार वीरसेन स्वामी ने उसे दोषजनक न मानकर उस तरह के अनेक सूत्रों को सुव्यवस्थित व निर्दोष सिद्ध किया है। इसके लिए यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते हैं (१) 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' चूलिका (१) में सूत्र १३-१४ के द्वारा प्रश्नोत्तर रूप में ज्ञानावरणीय की पांच प्रकृतियों का उल्लेख किया जा चुका था। फिर भी आगे 'स्थानसमुत्कीर्तन' चूलिका (२) में उनका पुनः उल्लेख किया गया है। --सूत्र १,६-२,४ । इसकी व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में यह आशंका प्रकट की गयी है कि पुनरुक्त होने से इस सत्र को नहीं कहना चाहिए। इसके समाधान में धवलाकार कहते हैं कि ऐसी आशंका करना उचित नहीं है, क्योंकि सब जीवों के धारणावरणीय (आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय १. उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि ?xxxसण्णीसु उवसामेंतो गब्भोवक्कंतिएसु उवसामेदि, ___णो सम्मुच्छिमेसु ।Xxx--सूत्र १,६-८,८-६ (पु० ६, पृ० २३८) २. धवला, पु० ५, पृ० ११६-१६ ३. दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो य। णियमा मणुसगदीए गिट्ठवगो चावि सव्वत्थ ।।--क०पा०, गा० ११० (५७) ४. धवला, पु० ५, पृ० २५६-५७ (सूत्र १८ की धवला टीका द्रष्टव्य है।) ७०० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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