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________________ काल अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी प्रमाण कहा गया है।' इसका स्पष्टीकरण करने पर धवला में यह शंका उठायी गयी है कि 'कर्म स्थिति को आवली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादर की स्थिति होती है। इस परिकर्मवचन के साथ इस सूत्र के विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए यह सूत्र संगत नहीं है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि परिकर्म का कथन सूत्र का अनुसरण नहीं करता है, इसलिए वही असंगत है; न कि प्रकृत सूत्र ।' ___इस प्रकार वहीं उपर्युक्त कालानुगमसूत्र को महत्त्व देकर धवलाकार ने उसके विरुद्ध जाने. वाले परिकर्म के कथन को असंगत होने से अग्राह्य ठहराया है। (३) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तियंच योनिमती मिथ्यादष्टियों के द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में यह कहा गया है कि क्षेत्र की अपेक्षा उनके द्वारा देवों के अवहारकाल से संख्यातगुणे अवहारकाल से जगप्रतर अपहृत होता है। सूत्र १,२,३५ इस सत्र की व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने भिन्न दो व्याख्यानों का उल्लेख किया है। उनकी सत्यता व असत्यता के विषय में शंका-समाधानपूर्वक धवलाकार ने प्रथम तो यह कहा है कि उनमें यह व्याख्यान सत्य है और दूसरा असत्य है, ऐसा हमारा कोई एकान्त मत नहीं है, किन्तु उन दोनों व्याख्यानों में एक असत्य होना चाहिए । तत्पश्चात् प्रकारान्तर से उन्होंने यह भी दृढ़तापूर्वक कहा है-अथवा वे दोनों ही व्याख्यान असत्य हैं, यह हमारी प्रतिज्ञा है । इस पर यह पूछे जाने पर कि यह कैसे जाना जाता है, उत्तर में उन्होंने कहा है कि वह पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों से वानव्यंतरदेव संख्यातगुणे हैं और वहीं पर देवियाँ उनसे संख्यातगणी हैं" इस खुद्दाबंधसूत्र' से जाना जाता है। और सूत्र को अप्रमाण करके व्याख्यान प्रमाण है, यह कहना शक्य नहीं है अथवा अव्यवस्था का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रकार उपर्युक्त खुद्दाबंधसूत्र के विरुद्ध होने से धवलाकार ने उन दोनों ही व्याख्यानों को असत्य घोषित कर दिया है। (४) जीवस्थान-अन्तरानुगम में एक जीव की अपेक्षा संयतासंयतों के उत्कृष्टकाल के प्ररूपक सूत्र (१,६,२३५-३७) की व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि इस प्रकार जो इस सूत्र का व्याख्यान किया जा रहा है वह ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें कम अन्तर प्ररूपित है, जबकि उससे उनका अधिक अन्तर सम्भव है। शंकाकार ने उस अधिक अन्तर को अपनी दृष्टि से वहां स्पष्ट भी किया है। ___ इस शंका को असंगत बतलाते हुए धवला में कहा गया है कि संज्ञी सम्मर्छन पर्याप्त जीवों में संयमासंयम के समान अवधिज्ञान और उपशम-सम्यक्त्व की सम्भावना नहीं है। अतएव १. उकस्सेण आलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जातंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। -सूत्र १,५,११२ (पु० ४, पृ० ३८६) २. धवला, पु० ४, पृ० ३८६-६० ३. पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ। वाणवेंतरदेवा संखेज्जगुणा । देवीओ संखे. ज्जगुणाओ।-सूत्र २,११-२,३६-४१ (पु० ७, पृ० ५८५) ४. धवला, पु० ३,२३०-३२ वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ६६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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