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________________ अनुसार कमस्थिति को प्ररूपणा करनी चाहिए। इस सूचना के साथ ही उस 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार को समाप्त कर दिया गया है।' सम्भवतः धवलाकार को इसके विषय में कुछ अधिक उपदेश नहीं प्राप्त हुआ है। (३) उन २४ अनुयोगद्वारों में अन्तिम 'अल्पबहुत्व' अनुयोगद्वार है, जिसे पिछले सभी अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध कहा गया है । इसको प्रारम्भ करते हुए धवला में कहा गया है कि नागहस्ती भट्टारक अल्पब हुत्व अनुयोगद्वार में सत्कर्म का मार्गण करते हैं और यही उपदेश प्रवाह्यमान-आचार्यपरम्परागत है। इतना कहकर आगे धवला में प्रकृतिसत्कर्म व स्थितिसत्कर्म आदि की प्ररूपणा स्वामित्व व एक जीव की अपेक्षा काल आदि अनेक अवान्तर अनुयोगद्वारों में की गयी है। इसके विपरीत अन्य किसी मत का उल्लेख धवलाकार ने नहीं किया है। (४) आगे निकाचित-अनिकाचित अनुयोगद्वार (२१) से सम्बद्ध इसी 'अल्पब हुत्व' अनुयोगद्वार के प्रसंग में धवलाकार ने महावाचक क्षमाश्रमण के उपदेशानुसार कषायोदयस्थान, स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान, प्रदेशउदीरक अध्यवसानस्थान, प्रदेशसंक्रमण अध्यवसानस्थान, उपशामक अध्यवसानस्थान, निधत्त अध्यवसानस्थान और निकाचन अध्यवसानस्थान-इनमें महावाचक क्षमाश्रमण के उपदेशानुसार अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है।" महावाचक क्षमाश्रमण से किसका अभिप्राय रहा है, यह धवला में स्पष्ट नहीं है। सम्भवतः उससे धवलाकार का अभिप्राय नागहस्ती से रहा है। इसके विपरीत दूसरे किसी उपदेश के अनुसार उसकी प्ररूपणा वहां नहीं की गयी है। वह उपदेश कदाचित् आर्यमंक्षु का हो सकता है। जैसा कि पाठक आगे देखेंगे, आर्यमक्ष के उपदेश की प्रायः उपेक्षा की गयी है। (५) जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, यहीं पर आगे 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार (२२) से सम्बद्ध इसी अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में धवला में कहा गया है कि 'कर्मस्थिति' अनयोगद्वार में महावाचक आर्यनन्दी सत्कर्म को करते हैं, पर महावाचक (?) स्थितिसत्कर्म को प्रकाशित करते हैं। इतना कहकर आगे धवला में 'एवं कम्मट्ठिदि त्ति समत्तमणियोगद्दारं' यह सूचना करते हए उस कर्मस्थिति से सम्बद्ध अल्पबहुत्व को समाप्त कर दिया गया है, व उसके विषय में कुछ विशेष प्रकाश नहीं डाला गया है । यहाँ भी 'महावाचक' से किसका अभिप्राय रहा है, यह स्पष्ट नहीं है। यह सब प्ररूपणा अपूर्ण व अस्पष्ट है। इस स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार को इससे सम्बन्धित व्यवस्थित अधिक उपदेश नहीं प्राप्त हुआ है। १. धवला, पु० १६, पृ० ५१८ २. अग्गेणियस्स पुव्वस्स पंचमस्स वत्थुस्स....अप्पाबहुगं च सव्वत्थ ।-सूत्र ४,१,४५ (पु० ६, पृ० १३४)। ३. धवला, पु० १६, पृ० ५२२ आदि। ४. धवला, पु० १६, पृ० ५७७ ५. वही, ॥ ॥ प्रत्यकारोल्लेख / ६५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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