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________________ वृत्तिसूत्रों के रूप में छह हजार प्रमाण चूर्णिसूत्रों को रचा ।' इस श्रुतावतार के उल्लेख से भी आर्यमंक्षु और नागहस्ती, ये दोनों समकालीन ही सिद्ध होते हैं । यहाँ श्रुतावतार में जो यह कहा गया है कि गुणधर ने इन गाथासूत्रों का व्याख्यान नागहस्ती और आर्यमक्षु के लिए किया, यह अवश्य विचारणीय है; क्योंकि धवला और जयधवला दोनों में ही यह स्पष्ट कहा गया है कि वे गाथासूत्र उन दोनों को गुणधर के पास से आचार्य - परम्परा से आते हुए प्राप्त हुए थे । इससे इन्द्रनन्दी के कथनानुसार जहाँ वे दोनों गुणधर के समकालीन सिद्ध होते हैं वहाँ धवला और जयधवला के कर्ता वीरसेन स्वामी के उपर्युक्त उल्लेख के अनुसार वे गुणधर के कुछ समय बाद हुए प्रतीत होते हैं । इससे इन्द्रनन्दी के उक्त कथन में कहाँ तक प्रामाणिकता है, यह विचारणीय हो जाता है । इसी प्रकार इन्द्रनन्दी ने कषायप्राभूतगत उन गाथाओं की संख्या १०३ कही है जब कि स्वयं गुणधराचार्य उनकी संख्या का निर्देश १८० कर रहे हैं । ' समय की समस्या ऊपर जो कुछ विचार प्रकट किया गया है, उससे आचार्य गुणधर, आर्यमक्षु, नागहस्ती और यतिवृषभ के समय की समस्या सुलझती नहीं है । उनके समय के सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा जो विचार किया गया है उसके लिए कषायप्राभृत ( जयधवला ) प्रथम भाग की प्रस्तावना ( पृ० ३८-५४) देखनी चाहिए। धवला और जयधवला में उनका उल्लेख (१) कृति - वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में से दसवें उदयानुयोगद्वार में भुजाकार प्रदेशोदय की प्ररूपणा करते हुए धवला में एक जीव की अपेक्षा काल की प्ररूपणा के अन्त में यह सूचना की गयी है कि यह नागहस्ती श्रमण का उपदेश है। यथा एसुवदेसो नागहत्यिखमणाणं । – पु० १५, पृ० ३२७ ठीक इसके आगे 'अण्णेण उवएसेण' ऐसी सूचना करते हुए उसकी प्ररूपणा प्रकारान्तर से पुनः की गयी है । यह अन्य उपदेश किस आचार्य का रहा है; इसकी सूचना धवला में नहीं की गयी है । सम्भव है वह आर्यमक्ष, क्षमाश्रमण का रहा हो । (२) उक्त २४ अनुयोगद्वारों में २२वाँ 'कर्मस्थिति' अनुयोगद्वार है । वहाँ धवलाकार ने कहा है कि इस विषय में दो उपदेश हैं - १. नागहस्ती क्षमाश्रमण जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियों के प्रमाण की प्ररूपणा को 'कर्मस्थिति प्ररूपणा' कहते हैं, २. पर आर्यमक्षु क्षमाश्रमण कर्मस्थिति में संचित सत्कर्म की प्ररूपणा को 'कर्मस्थिति प्ररूपणा' कहते हैं । इतना स्पष्ट करके आगे वहाँ यह सूचना कर दी गयी है कि इस प्रकार इन दो उपदेशों के १. इ० श्रुतावतार १५२-५६ २. गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि | वच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ॥ क०पा०, गा० २ ६५० / षट्खण्डागम- परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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