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________________ वहाँ धवला में उसके स्थान में 'सुवोगो य सिद्धाणं' पाठ है जो लिपिदोष से हुआ मालूम होता है। (२) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में द्रव्यभेदों का निर्देश करते हुए धवला में जीव-अजीव के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । वहाँ जीव के साधारण लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा है कि जो पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध व आठ प्रकार के स्पर्श से रहित, सूक्ष्म, अमतिक, गुरुता व लघुता से रहित, असंख्यात प्रदेशवाला और आकार से रहित हो, उसे जीव जानना चाहिए। यह जीव का साधारण लक्षण है । प्रमाण के रूप में वहाँ 'वुतं च' कहकर "अरसमरूवमगंध" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है।' यह गाथा प्रवचनसार (२-८०) और पंचास्तिकाय (१२७) में उपलब्ध होती है। (३) आगे बन्धस्वामित्वविचय में वेदमार्गणा के प्रसंग में अपगतवेदियों को लक्ष्य करके पांच ज्ञानावरणीय आदि सोलह प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों का विचार किया गया है। उस प्रसंग में धवलाकार ने उन सोलह प्रकृतियों का पूर्व में बन्ध और तत्पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, यह स्पष्ट करते हुए 'एत्थुवउज्जती गाहा" ऐसा निर्देश करके इस गाथा को उद्धृत किया है आगमचक्खू साहू इंदियचक्खू असेसजीवा जे । देवा य ओहिचक्खू केवलचक्खू जिणा सव्वे ॥ यह गाथा कुछ पाठभेद के साथ प्रवचनसार में इस प्रकार उपलब्ध होती है आगमचक्खू साहू इंदिय चक्खूणि सव्वभूदाणि । देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पण सव्वदोचक्खू ।।३-३४।। (४) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में श्रुतज्ञान के पर्याय-शब्दों का स्पष्टीकरण करते हुए धवला में प्रवचनसार की "जं अण्णाणी कम्म" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है। २१. भगवती आराधना -यह शिवार्य (आचार्य शिवकोटि) के द्वारा रची गयी है। जीवस्थान-सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में कार्मण काययोग के प्रतिपादक सूत्र (१,१,६०) की व्याख्या के प्रसंग में शंकाकार ने, केवलिसमुद्घात सहेतुक है या निर्हेतुक, इन दो विकल्पों को उठाते हुए उन दोनों की ही असम्भावना प्रकट की है। उसके अभिमत का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यतिवृषभ के उपदेशानुसार क्षीणकषाय के अन्तिम समय में सब कर्मों (अघातियों) की स्थिति समान नहीं होती, इसलिए सभी केवली समुद्घात करते हुए ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं । किन्तु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घातगत केवलियों में बीस संख्या का नियम है, उनके मत से उन में कुछ समुद्घात को करते हैं और कुछ उसे नहीं भी करते हैं। ____ आगे प्रसंगप्राप्त कुछ अन्य शंकाओं का समाधान करते हुए उस संदर्भ में इन दो गाथाओं का उपयोग हुआ है छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं जाणं। ससमुग्धाओ सिज्मइ सेसा भज्जा समुग्घाए । १. धवला, पु० ३, पृ० २ २. वही, पु० ८, पृ० २६४ ३. देखिए धवला पु० १३, पृ० २८१ और प्रवचनसार गाथा ३-३८ __ अनिर्दिष्टनाम ग्रन्थ | ६१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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