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________________ अवीचार ध्यान के लिए 'अप्रतिपाति विशेषण क्यों नहीं दिया गया। इसका समाधान करते हा धवला में कहा गया है कि उपशान्तकषाय संयत का भवक्षय से और काल के क्षय से पायों में पड़ने पर पतन देखा जाता है, इसलिए एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान को 'अप्रतिपाति' विशेषण से विशेषित नहीं किया गया है । इस पर पूनः यह शंका उठी है कि उपशान्तकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान के न होने पर “उपशान्तकषाय संयत पृथक्त्ववितर्क-वीचार ध्यान को ध्याता है" इस आगमवचन' के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह पृथक्त्ववितर्क-वीचार ध्यान को ही ध्याता है. ऐसा नियम वहां नहीं किया गया है। इसी प्रकार क्षीणकषाय गुणस्थान में सदा-सर्वत्र एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान ही रहता हो, ऐसा भी नियम नहीं है, क्योंकि वहाँ इसके बिना योगपरावर्तन की एक समय प्ररूपणा घटित नहीं होती है। इसलिए क्षीणकषायकाल के प्रारम्भ में पृथक्त्ववितर्क-अवीचार ध्यान की भी सम्भावना सिद्ध है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि धवलाकार के अभिमतानुसार उपशान्तकषाय गुणस्थान में पथक्त्ववितर्कवीचार के अतिरिक्त एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान भी होता है तथा क्षीणकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार के अतिरिक्त पृथक्त्ववितर्क-वीचार ध्यान भी होता है। ध्यानशतक में इस प्रसंग में इस प्रकार का कुछ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। वहाँ इतना मात्र कहा गया है कि जो धर्मध्यान के ध्याता हैं, वे ही पूर्व दो शुक्लध्यानों के ध्याता होते हैं । विशेष इतना है कि उन्हें प्रशस्त संहनन से सहित और पूर्वश्रुत के वेत्ता होना चाहिए।' इस प्रकार की कुछ विशेषताओं के होते हुए भी यह सुनिश्चित है कि धवला में जो ध्यान की प्ररूपणा की गयी है उसका आधार ध्यानशतक रहा है। साथ ही वहाँ यथाप्रसंग 'भगवतीआराधना' और 'मूलाचार' का भी अनुसरण किया गया है । धवला में वहाँ उस प्रसंग में भगवती-आराधना की इन गाथाओं को उद्धृत किया गया है धवला पृ० भगवती आ० गाथा १ किचिद्दिट्ठिमुपा १७०६ २ पच्चाहरित्तु विसएहि १७०७ ३ अकसायमवेदत्तं २१५७ ४ आलंबणेहि भरियो १८७६ ५ कल्लाणपावए जे' ६ एगाणेगभवगयं १७१३ १. उवसंतो दु पुधन्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं । खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कवीचारं ।। -मूला० ५-२०७ (यही अभिप्राय स०सि० (९-४४), तत्त्वार्थवार्तिक (९-४४) में भी प्रकट किया गया है।) २. धवला, पु० १३, पृ० ८१ ३. ध्यानशतनः ६४ ४. नं० ५ व ६ की दो गाथाएं मूलाचार (५,२०३-४) में भी उपलब्ध होती हैं। अनिर्दिष्टनाम ग्रन्थ / ६३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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