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________________ या व्याख्याता को नयों के विषय में निपुण अवश्य होना चाहिए । पूर्व गाथा के उत्तरार्ध में जहाँ यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि — इसलिए सिद्धान्त के वेत्ता मुनिजन नयवाद में निपुण' हुआ करते हैं, वहाँ दूसरी गाथा के उत्तरार्ध में यह स्पष्ट किया गया है कि नयों के विषय में दक्ष वक्ता को नयों का आश्रय लेकर श्रोता के लिए तत्त्व का व्याख्यान करना चाहिए । इस प्रकार पूर्व गाथा की अपेक्षा दूसरी गाथा का उत्तरार्ध अधिक सुबोध दिखता है । (२) जीवस्थान - सत्प्ररूपणा में सूत्रकार ने चौदह जीवसमासों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत आठ अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा है । —सूत्र १,१,५ सूत्र में प्रयुक्त 'अणियोगद्दार' के प्रसंग में धवला में उसके अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक इन समानार्थक शब्दों का निर्देश करते हुए 'उक्तं च' के साथ "अणियोगो य जियोगो" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है । यह गाथा आवश्यक निर्यक्ति में उसी रूप में उपलब्ध होती है । 3 ५. उत्तराध्ययन- - पूर्वोक्त पृथिवी के वे ३६ भेद उत्तराध्ययन में भी उपलब्ध होते हैं । ~(३६, ७४-७७) ६. कसायपाहुड - यह पीछे ( पृ० १००७-२३) स्पष्ट किया जा चुका है कि धवलाकार ने ग्रन्थनामनिर्देश के बिना कसायपाहुड की कितनी ही गाथाओं को उद्धृत किया है । ७. गोम्मटसार – आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा विरचित गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड में आ० वीरसेन के द्वारा धवला में उद्धृत पचासों गाथाएँ आत्मसात् की गयी हैं । * ८. चारित्रप्राभृत — जीवस्थान खण्ड के अवतार की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में आचार्य कुन्दकुन्द - विरचित चारित्रप्राभृत की "दंसण-वद-सामाइय' आदि गाथा को उद्धृत करते हुए धवला में कहा गया है कि उपासकाध्ययन नाम का अंग ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा दर्शनिक, व्रतिक व सामायिकी आदि ग्यारह प्रकार के उपासकों के लक्षण, उन्हीं के व्रतधारण की विधि और आचरण की प्ररूपणा करता है । " ६. जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो - मुनि पद्मनन्दी द्वारा विरचित 'जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो' का रचनाकाल प्रायः अनिर्णीत है । फिर भी सम्भवतः उसकी रचना धवला के पश्चात् हुई है, ऐसा प्रतीत होता है । जीवस्थान - क्षेत्र प्रमाणानुगम में प्रसंगप्राप्त लोक के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यदि लोक को नीचे से क्रमश: सात, एक, पाँच व एक राजु विस्तारवाला; उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात राजु बाहल्यवाला और चौदह राजु आयत न माना जाय तो प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र को सिद्ध करने के लिए जो दो गाथाएँ कही गयी हैं वे निरर्थक सिद्ध होंगी, क्योंकि उनमें जो लोक का घनफल कहा गया है, वह इसके बिना बनता १. गाथा में 'नियमा' के स्थान में यदि 'णिउणा' पाठ रहा हो, तो यह असम्भव नहीं दिखता । २. धवला, पु०१, पृ० १५३-५४ ३. आव० नि० गा० १२५ ४. देखिए पीछे ' ष० ख० ( धवला) व गोम्मटसार' शीर्षक । ५. धवला, पु० १ १०२ व चा० प्रा० २२ ६१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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