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________________ मीमांसा की १०६वों कारिका के उत्तरार्ध को इस प्रकार उद्धृत किया गया है स्याद्वादप्रविभतार्थविशेषव्यञ्जको नयः । पदविभाग के साथ उसके अभिप्राय को भी वहाँ प्रकट किया गया है।' इसी प्रसंग में आगे धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि ये सभी नय यदि वस्तुस्वरूप का अवधारण नहीं करते हैं तो वे समीचीन दृष्टि (सन्नय) होते हैं, क्योंकि वे उस स्थिति में प्रतिपक्ष का निराकरण नहीं करते हैं। इसके विपरीत यदि वस्तुस्वरूप का एकान्त रूप से अवधारण करते हैं तो वे उस स्थिति में मिथ्यादृष्टि (दुर्नय) होते हैं, क्योंकि वैसी अवस्था में उनकी प्रवृत्ति प्रतिपक्ष का निराकरण करने में रहती है। इतना स्पष्ट करते हुए आगे वहाँ 'अत्रोपयोगिनः श्लोकाः' इस सूचना के साथ जिन तीन श्लोकों को उद्धृत किया गया है, उनमें प्रारम्भ के दो श्लोक स्वयम्भूस्तोत्र (६२ व ६१) के हैं तथा तीसरा श्लोक आप्तमीमांसा (१०८वीं कारिका) का है। ___इसी प्रसंग में आगे धवला में कहा गया है कि इन नयों का विषय उपचार से उपनय और उनका समूह वस्तु है, क्योंकि इसके बिना वस्तु की अर्थक्रियाकारिता नहीं बनती। यह कहते हुए आगे वहाँ 'अत्रोपयोगी श्लोकः' इस निर्देश के साथ आप्तमीमांसा की क्रम से १०७वीं और २२वीं इन दो कारिकाओं को उद्धृत किया गया है। साथ ही इन दोनों के बीच मे "एयदवियम्मि जे" इत्यादि सन्मतितकी एक गाथा (१-३३) को भी उद्धृत किया गया है। (४) आगे 'प्रक्रम' अनुयोगद्वार में प्रसंगप्राप्त सत् व असत् कार्यवाद के विषय में विचार करते हुए उस प्रसंग में धवला में क्रम से आप्तमीमांसा की इन १४ कारिकाओं को उद्धत किया गया है-३७,३९-४०,४२,४१,५६-६०,५७ और ६-१४ । ४. आवश्यकनियुक्ति-धवला में ग्रन्थावतार के प्रसंग में नय की प्ररूपणा करते हुए अन्त में यह स्पष्ट किया गया है कि व्यवहर्ता जनों को इन नयों के विषय में निपुण होना चाहिए, क्योंकि उसके बिना अर्थ के प्रतिपादन का परिज्ञान नहीं हो सकता है। यह कहते हुए आगे वहाँ 'उत्तं च' कहकर दो गाथाओं को उद्धत किया गया है। उनमें प्रथम गाथा इस प्रकार है णत्थि णएहिविहूणं सुत्तं अत्थोव्व जिणवरमदम्हि । तो णयवादे णियमा मुणिणो सिद्धतिया होंति ॥ इसके समकक्ष एक गाथा आ० भद्रबाहु (द्वितीय) विरचित आवश्यकनियुक्ति में इस प्रकार उपलब्ध होती है नत्थि नएहि विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणवरमदम्मि। आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूआ॥-आव०नि०मा० ६६१ इन दोनों गाथाओं का पूर्वार्ध प्राय: समान है । तात्पर्य दोनों गाथाओं का यही है कि वक्ता १. धवला, पु० ६, पृ० १६७ २. धवला, पु० ६, पृ० १८२ ३. धवला, पु० ६, पृ० १८२-८३ ४. धवला पु० १५, पृ० १८-२१ और २६-३१ ५. वही, पु० १, पृ० ६१ अनिर्दिष्टनाम ग्रन्थ / ६१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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