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________________ यदि उसे सर्वाचार्य-सम्मत बतलाकर प्रमाणभूत प्रकट किया गया है, तो कहीं पर उसे सूत्र के विरुद्ध होने से अप्रमाणभूत भी ठहरा दिया गया है। इसी प्रकार कहीं पर उसके आश्रय से विवक्षित विषय की पुष्टि की गई है और कहीं पर उसके विरुद्ध होने से दूसरी मान्यताओं को असंगत घोषित किया गया है । धवला में जो प्रचुरता से उसका उल्लेख किया गया है उसमें पु० ३, पृ० १६ तथा पु० ४, पृ० १८३-८४ व १५५-५६ पर किये गये उसके तीन उल्लेखों को पीछे स्पष्ट किया जा चुका है। शेष उल्लेखों में कुछ को यहाँ स्पष्ट किया जाता है (४) जीव-स्थान-द्रव्य प्रमाणानुगम में सूत्रोक्त नारक-मिथ्यादृष्टियों के द्रव्यप्रमाण को स्पष्ट करते हुए धवला में प्रसंग-प्राप्त असंख्यात के अनेक भेद प्रकट किये गये हैं। आगे यथाक्रम से उनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उनमें से एक 'गणना' असंख्यात के प्रसंग में यह कह दिया है कि 'जो गणना संख्यात है उसका कथन परिकर्म में किया गया है।' (५) उपर्युक्त द्रव्यप्रमाणानुगम में उन्हीं मिथ्यादृष्टि नारकों के क्षेत्र-प्रमाण को जगप्रतर के असंख्यातवें भाग-मात्र असंख्यात जगश्रेणियां बतलाते हुए उन जगश्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के द्वितीय वर्गमूल से गुणित उसके प्रथम वर्गमूल-प्रमाण निर्दिष्ट की गई है। -सूत्र १,२,१७ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सूत्र में निर्दिष्ट अंगुलसामान्य से सूच्यंगुल को ग्रहण किया है। इस पर चहाँ यह शंका उठती है कि सूत्र में सामान्य से 'अंगुल का वर्गमूल' ऐसा निर्देश करने पर उससे प्रतरांगुल अथवा घनांगुल के वर्गमूल का ग्रहण कैसे नहीं प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि "आठ का पुनः-पुनः वर्ग करने पर असंख्यात वर्ग-स्थान जाकर सौधर्म-ऐशान की विष्कम्भ-सूची उत्पन्न होती है, इस विष्कम्भ-सूची का एक बार वर्ग करने पर नारकविष्कम्भ-सूची हो ; उसका एक बार वर्ग करने पर भवनवासी विष्कम्भ-सूची होती है और उसका एक बार वर्ग करने पर घनांगुल होता है" इस परिकर्म के कथन से जाना जाता है कि घनांगुल व प्रतरांगुल के वर्गमूल का यहाँ ग्रहण नहीं होता; किन्तु सूच्यंगुल के वर्गमूल का ही ग्रहण होता है । कारण यह है कि इसके बिना घनांगुल का द्वितीय वर्गमूल बनता नहीं है। (६) जीव-स्थान-कालानुगम में बादर एकेन्द्रियों के उत्कृष्टकाल को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि द्वीन्द्रियादि कोई जीव अथवा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव बादर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर यदि अतिशय दीर्घ काल तक वहाँ रहता है तो वह असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणीउत्सर्पिणीकाल तक ही रहता है, तत्पश्चात् निश्चय से वह अन्यत्र चला जाता है। इस प्रसंग में वहां यह शंका की गई है कि “कर्मस्थिति को आवलि के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादर स्थिति होती है" इस प्रकार जो यह परिकर्म में कहा गया है उससे प्रस्तुत सूत्र विरुद्ध जाता है, इसलिए उसे संगत नहीं कहा जा सकता है । इसके उत्तर में धवला कार ने कहा है कि ऐसा कहना उचित नहीं है। कारण यह कि परिकर्म का वह कथन चूंकि १. देखिए पीछे 'षट्खण्डागम पर निर्मित कुछ टीकाओं का उल्लेख' शीर्षक में 'पद्मनन्दी विरचित परिकर्म' शीर्षक । २. धवला, पु० ३, पृ० १३३-३४ ५९० / वखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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