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________________ उचित नहीं दिखता। यह सम्भव है कि उसकी प्रतियों में कहीं कुछ पाठ स्खलित हो गये हों तथा प्ररूपित विषय के स्पष्टीकरणार्थ उससे सम्बद्ध कुछ सन्दर्भ भी पीछे किन्हीं विद्वानों के द्वारा जोड़ दिये गये हों।' घवला में उसका एक दूसरा उल्लेख जीवस्थान-स्पर्शनानुगम के प्रसंग में किया गया है । ज्योतिषी देव सासादन-सम्यग्दृष्टियों के सूत्र (१, ४, ४) में निर्दिष्ट आठ-बटे चौदह (८/१४) भावप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र के लाने के लिए स्वयम्भूरमण समुद्र के परे राजू के अर्धच्छेद माने गये हैं। इसके प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि स्वयंम्भूरमण समुद्र के परे राजू के अर्धच्छेद मानने पर "जितनी द्वीप-समुद्रों की संख्या है और जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं, राजु के एक अधिक उतने ही अर्धच्छेद होते हैं" इस परिकर्म के साथ विरोध' का प्रसंग प्राप्त होने वाला है। इसके समाधान में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि उसका उपर्युक्त परिकर्मवचन के साथ तो विरोध होगा, किन्तु ज्योतिषी देवों की संख्या के लाने में कारणभूत दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग-प्रमाण जगप्रतर के भागहार के प्ररूपक सूत्र (१,२,५५-पु० ३) के साथ उसका विरोध नहीं होगा। इसलिए स्वयम्भूरमण समुद्र के परे राजु के अर्धच्छेदों के प्ररूपक उस व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, न कि उक्त परिकर्मवचन को; क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध है और सूत्र के विरुद्ध व्याख्यान होता नहीं है, अन्यथा व्यवस्था ही कुछ नहीं रह सकती है। प्रसंग के अन्त में धवलाकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि तत्प्रायोग्य संख्यात रूपों से अधिक जम्बूद्वीप के अर्धच्छेदों से सहित द्वीप-सागरों के रूपों-प्रमाण राजु के अर्धच्छेदों के प्रमाण की यह परीक्षाविधि अन्य आचार्यों के उपदेश की परम्परा का अनुसरण नहीं करती है, वह केवल तिलोयपण्णत्ति-सुत्त का अनुसरण करती है। उसकी प्ररूपणा हमने ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सूत्र का आलम्बन लेनेवाली युक्ति के बल से प्रकृत गच्छ के साधनार्थ की है। ___ यहाँ यह स्मरणीय है कि धवला में इस प्रसंग से सम्बद्ध जो यह गद्यभाग है वह प्रसंगानुरूप कुछ शब्द-परिवर्तन के साथ प्रायः उसी रूप में तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध होता है। इस को वहां किसी के द्वारा निश्चित ही पीछे जोड़ा गया है। यह उस (तिलोयपण्णत्ती) में किये गये 'केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्तानुसारिणी' इस उल्लेख से स्पष्ट है, क्योंकि कोई भी ग्रन्थकार विवक्षित विषय की प्ररूपणा की पुष्टि में अपने ही ग्रन्थ का प्रमाण के रूप में वहाँ उल्लेख नहीं कर सकता है। १३. परियम्म-धवला में इसका उल्लेख अनेक प्रसंगों पर किया गया है। कहीं पर १. इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए ति०प० २ की प्रस्तावना पृ० १५-२० और पुरातन जैन वाक्यसूची' की प्रस्तावना पृ०४१-५७ द्रष्टव्य हैं। २. धवला, पु० ४; पृ० १५५-५७ ३. धवला, पु० ४, पृ० १५२-५६ और ति० प० भा० २, पृ. ७६४-६६ ४. यथा-पु० ३, पृ० १६, २४, २५, ३६, १२४, १२७, १३४, २६३, ३३७ व ३३६ । पु० ४, पृ० १५६, १८४ व ३६०। पु०७, पृ० १४५, २८५ व ३७२ । पु० ६, पृ० ४८ व ५६ । पु. १०, पृ० ४८३ । पु० १२, पृ० १५४ । पु० १३, पृ० १८, २६२-६३ व २६६ । पु० १४, पृ० ५४, ३७४ व ३७५ प्रन्योल्लेख / ५८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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