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________________ असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाले वेदकसम्यक्त्व के योग्य मिथ्यादृष्टि जीव यदि संयमासंयम को प्राप्त करता है तो वह दो ही करणों को करता है, अनिवृत्तिकरण उसके नहीं होता। जब वह अन्तर्मुहूर्त में संयमासंयम को प्राप्त करनेवाला होता है तब से लेकर सभी जीव आयु को छोड़कर शेष कर्मों के स्थितिवन्ध और स्थितिसत्त्व को अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम के प्रमाण में करते हैं। शुभ कर्मों के अनुभागबन्ध और अनुभागसत्त्व को वह चतु:स्थानवाला तथा अशुभ कर्मों के अनुभागबन्ध और अनुभागसत्त्व को दो स्थानवाला करता है । तब से वह अनन्तगुणी अधःप्रवृत्तकरण नाम की विशुद्धि के द्वारा विशद्ध होता है । यहाँ स्थितिकाण्डक, अनुभागका पडक और गुणश्रेणि नहीं होती । वह स्थितिबन्ध के पर्ण होने पर केवल उत्तरोत्तर पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन स्थितिबन्ध के साथ स्थितियों को बांधता है । जो शुभ कर्मों के अंश हैं उन्हें अनन्तगुणे अनुभाग के साथ बाँधता है और जो अशुभ कर्मों के अंश हैं उन्हें अनन्तगुणे हीन अनुभाग के साथ बाँधता है। अपर्वकरण के प्रथम समय में जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपम के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पृथक्त्व सागरोपम.प्रमाण होता है । अनुभागकाण्डक अशुभ कर्मो के अनभाग का अनन्त वहभाग प्रमाण होता है । शुभ कर्मों के अनुभाग का घांत नहीं होता । यहाँ प्रदेशाग्र की गणश्रेणिनिर्जरा भी नहीं है। स्थितिबन्ध पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन होता है । इस क्रम से अपूर्वकरणकाल समाप्त होता है । अनन्तर समय में प्रथम समयवर्ती संयतासंयत हो जाता है । तब वह अपूर्व-अपूर्व स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्ध को प्रारम्भ करता है । आगे संयमासंयमलब्धिस्थानों में प्रतिपातस्थान, प्रतिपद्यमानस्थान और प्रतिपद्यमान-अप्रतिपातस्थानों का विचार किया गया है और उनके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार संयमासंयम को प्राप्त करनेवाले की विधि की धवला में विस्तार से चर्चा है (पु० ६, पृ० २६७-८०) सकलचारित्र की प्राप्ति का विधान-सकलचारित्र क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक के भेद रो तीन प्रकार का है। इनमें प्रथमतः क्षायोपशमिक चारित्र को प्राप्त करनेवाले की दिधि की प्ररूपणा में धवलाकार ने कहा है कि जो प्रथम सम्यक्त्व और संयम दोनों को एक साथ प्राप्त करने के अभिमुख होता है वह तीनों ही करणों को करता है। परन्तु यदि मोहनीय की अट्राईम प्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत संयम की प्राप्ति के अभिमुख होता है तो वह अनिवृत्तिकरण के बिना दो ही करणों को करता है । आगे इसी सन्दर्भ में इन करणों में होने वाले कार्य की प्ररूपणा संयमासंयम के अभिमुख होनेवाले के ही प्रायः समान की गयी है। यहाँ संयमलब्धिस्थानों के प्रसंग में उनके ये तीन भेद निर्दिष्ट हैं-प्रतिपातस्थान, उत्पादस्थान और तद्व्यतिरिक्तस्थान । जिस स्थान में जीव मिथ्यात्व, असंयमसम्यक्त्व अथवा संयमासंयम को प्राप्त होता है वह प्रतिपा पान ने वह संयम को प्राप्त करता है उसे उत्पादस्थान कहा जाता है। शेष सभी चारित्रस्थानों को तद्व्यतिरिक्त स्थान जानना चाहिए। आगे इन लब्धिस्थानों में अल्पबहुत्व भी दिखलाया है। इस प्रकार क्षायोपशमिक चारित्र प्राप्त करनेवाले की विधि की प्रा.पणा समाप्त हुई है। औपशमिक चारित्र को प्राप्त करनेवाला वेदकसम्यग्दृष्टि पूर्व में ही अनन्तानुबन्धी की ४४२ / षट्खण्डागम पर टीकाएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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