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________________ प्ररूपणा न होने पर भी धवलाकार ने उसका विवेचन किया है । दर्शनमोह का क्षपक प्रथमतः अनन्तानुबन्धिचतुष्क का विसंयोजन करता है । उसकी क्षपणा में भी अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रमण नहीं होते । उसके अन्तिम समय तक जीव उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि को प्राप्त होता हुआ पूर्व स्थितिबन्ध की अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन स्थिति को बांधता है । इस प्रकार इस करण में प्रथम स्थितिबन्ध की अपेक्षा अन्तिम स्थितिबन्ध संख्य ___ अपूर्वकरण के प्रथम समय में पूर्व स्थितिबन्ध की अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन अन्य हो स्थितिबन्ध होता है । इस प्रकार से यहाँ होनेवाले स्थितिबन्ध, स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रमण आदि की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रक्रिया से उत्तरोत्तर हानि को प्राप्त होनेवाले स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व आदि के विषय में धवलाकार ने विस्तार से प्ररूपणा की है। यही प्ररूपणाक्रम आगे अनिवृत्तिकरण के प्रसंग में भी रहा है (धवला पु० ६, पृ० २४७-६६)। __इस प्रसंग में सूत्रकार ने सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव उस सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा आयु को छोड़ शेष सात कर्मों की अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को संख्यातगणी हीन स्थापित करता है, इस पूर्वप्ररूपित अर्थ का, चारित्र को प्राप्त करनेवाले जीव के स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व की प्ररूपणा में सहायक होने से पुनः स्मरण करा दिया है।' __संयमासंयम प्राप्ति का विधान-जैसा कि ऊपर कहा गया है, सूत्रकार द्वारा अगले सूत्र में निर्देश किया गया है कि चारित्र को प्राप्त करनेवाला जीव सम्यक्त्व के अभिमुख हुए उस अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व की अपेक्षा आयु को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति को स्थापित करता है (१,८-६,१४)। इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सर्वप्रथम चारित्र के इन दो भेदों का निर्देश किया है-देशचारित्र और सकलचारित्र। इनमें देशचारित्र के अभिमुख होनेवाले मिथ्यादष्टि दो प्रकार के होते हैं-वेदकसम्यक्त्व के साथ संयमासंयम के अभिमख और उपशमसम्यक्त्व के साथ संयमासंयम के अभिमुख । इसी प्रकार संयम के अभिमुख होनेवाले मिथ्यादृष्टि भी दो प्रकार के होते हैं—वेदकसम्यक्त्व के साथ संयम के अभिमुख और उपशमसम्यक्त्व के साथ संयम के अभिमुख । इनमें संयमासंयम के अभिमुख हुआ मिथ्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व की अपेक्षा संख्यातगुणे हीन स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व को अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम के प्रमाण में स्थापित करता है । इसका कारण यह है कि प्रथम सम्यक्त्व के योग्य तीन करणरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तगुणे प्रथम सम्यक्त्व से सम्बद्ध संयमासंयम के योग्य तीन परिणामों से वे घात को प्राप्त होते हैं । धवलाकार ने इस सूत्र को देशामर्शक बतलाकर यह भी स्पष्ट किया है कि यह एकदेश के प्रतिपादन द्वारा सूत्र के अन्तर्गत समस्त अर्थ का सूचक है इसलिए यहाँ सर्वप्रथम संयमासंयम के अभिमुख होनेवाले के विधान की प्ररूपणा की जाती है । तदनुसार प्रथम सम्यक्त्व और संयमासंयम दोनों को एक साथ प्राप्त करनेवाला भी पूर्वोक्त तीन करणों को करता है। १. १०ख० सूत्र १,८-६,१३ व इसकी धवला टीका (पु० ६, पृ० २६६) षट्खण्डागम पर टीकाएँ।४४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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