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________________ दि० पंचसंग्रह में मतभेद का उल्लेख न करके उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का निर्देश है, जो यतिवृषभाचार्य के मत का अनुसरण करनेवाला है (गा०३-२७)। यह गाथा कर्मकाण्ड में भी उसी रूप में उपलब्ध होती है (२६४)। धवला में इस उदयव्युच्छिति के प्रसंग को समाप्त करते हुए 'एत्थ उवसंहारगाहा' ऐसी सूचना करते हुए इस गाथा को उद्धृत किया गया है-- दस चदुरिगि सत्तारस अट्ठ य तह पंच चेव चउरो य । छ-छक्क एग दुग दुग चोद्दस उगुतीस तेरसुदयविही ।। -धवला पु०८, पृ० ६-१० यह गाथा कर्मकाण्ड में इसी रूप में ग्रन्थ का अंग बना ली गयी है (गा० २६३) । १२. धवला में उठाये गये उन २३ प्रश्नों में चार (२०-२३) प्रश्न सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव बन्ध से सम्बन्धित हैं। धवलाकार ने यथाप्रसंग सूत्रनिर्दिष्ट विभिन्न प्रकृतियों के विषय में इन चारों बन्धों को स्पष्ट किया है । जैसे-- सूक्ष्मसाम्परायसंयत के बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली पूर्वोक्त १६ प्रकृतियों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय इन १४ प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यादृष्टि के आदि हैं, क्योंकि उपशमश्रेणि में उनका बन्ध व्युच्छेद करके नीचे उतरते हुए मिथ्यात्व को प्राप्त होने पर उनका सादिबन्ध देखा जाता है। वह अनादि भी हैं, जो मिथ्यादृष्टि जीव उपशम श्रेणि पर कभी आरूढ़ नहीं हुए हैं उनके उस बन्ध का आदि नहीं है। अभव्य मिथ्यादृष्टियों के उनका ध्र वबन्ध है, क्योंकि उनके उस बन्ध की व्युच्छिति कभी होनेवाली नहीं है। वह अध्र व भी है, क्योंकि उपशम अथवा क्षपक श्रेणि पर चढ़ने योग्य मिथ्यादृष्टियों के उस बन्ध की ध्र वता (शाश्वतिकता) रहनेवाली नहीं है । यही स्थिति यशःकीति और उच्च गोत्र की है। इतना विशेष है कि उनका अनादि और ध्र वबन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके प्रतिपक्षभूत अयशःकीर्ति और नीचगोत्र के बन्ध का होना सम्भव है। शेष सासादन आदि गुणस्थानों में उन १४ प्रकृतियों का सादि, अनादि और अध्र व तीन प्रकार का बन्ध सम्भव है। उनका ध्रुवबन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि भव्य जीवों के बन्ध की व्युच्छित्ति नियम से होने वाली है। यशःकीति और उच्च गोत्र इन दो प्रकृतियों का बन्ध सभी गुणस्थानों में सादि और अध्र व दो प्रकार का होता है।' कर्मकाण्ड में इस प्रसंग में प्रथमतः मूल प्रकृतियों में इस चार प्रकार के बन्ध को स्पष्ट करते हुए वेदनीय और आयु को छोड़ शेष ज्ञानावरणादि छह कर्मों के बन्ध को चारों प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है । वेदनीय कर्म का सादि के बिना तीन प्रकार का और आयु का अनादि व ध्र व से रहित दो प्रकार का बन्ध कहा गया है। आगे इस चार प्रकार के बन्ध का स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट किया है बन्ध का अभाव होकर जो पुन: बन्ध होता है वह सादि बन्ध कहलाता है। श्रेणि पर न चढ़नेवालों के जो विवक्षित प्रकृति का बन्ध होता है उसे अनादि बन्ध कहा जाता है, क्योंकि तब तक कभी उस बन्ध का अभाव नहीं हुआ है। जो बन्ध अविश्रान्त चालू रहता है उसका नाम ध्रुवबन्ध है, जैसे अभव्य का कर्मबन्ध । भव्य जीव के जो कर्मबन्ध होता है उसे अध्रुवबन्ध १. धवला पु० ८, पृ० २६-३०. षट्खण्डागम को अन्य प्रन्थों से तुलना / ३१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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