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________________ चतुरिन्द्रिय, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण । तत्पश्चात् विकल्प के रूप में चूणिसूत्रों के कर्ता (यतिवृषभाचार्य) के उपदेशानुसार उसी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उदयव्युच्छित्ति को प्रकट करते हुए मिथ्यात्व, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन पांच प्रकृतियों की ही उदयव्युच्छित्ति दिखलायी गयी है। इसके कारणों का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि चूर्णिसूत्रों के कर्ता के मतानुसार एकेन्द्रियादि चार जातियों और स्थावर इन पांच प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होती है।' क० का० में भी उसी प्रकार से उस उदयव्युच्छित्ति दिखलाई. की गई है। सर्वप्रथम वहाँ क्रम से मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार से निर्दिष्ट है---दस, चार, एक, सत्तरह, आठ, पांच, चार, छह, छह, एक, दो, दो व चौदह (१६), उनतीस और तेरह । तत्पश्चात् विकल्प रूप में उन्हीं की संख्या इस प्रकार निर्दिष्ट की गयी है-पांच, नौ, एक, सत्तरह, आठ, पाँच, छह, छह, एक, दो, सोलह, तीस और बारह (गा० २६३-६४)। ___ कर्मकाण्ड में यद्यपि उदयव्युच्छित्ति के संख्याविषयक मतभेद को गाथा में स्पष्ट नहीं किया गया है, फिर भी जैसी कि धवला में स्पष्ट सूचना की गई है, पूर्व दस संख्या का निर्देश महाकर्मप्रकृतिप्राभृत (आ० भूतबलि) के उपदेशानुसार और उत्तर पाँच संख्या का उल्लेख यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार समझना चाहिए। सत्प्ररूपणासूत्रों के रचयिता स्वयं आचार्य पुष्पदन्त ने भी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का अवस्थान एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही निर्दिष्ट किया है। यदि एकेन्द्रियादि चार जातियों का उदय सासादनसम्यग्दृष्टियों के सम्भव था तो यहाँ उनके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानों का सद्भाव प्रगट करना चाहिए था, पर वैसा वहाँ निर्देश नहीं किया गया है। इन दोनों मतों का उल्लेख करते हुए धवलाकारने सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका के प्रसंग में भी यह स्पष्ट कहा है कि प्राभूतचूणि के कर्ता के अभिमतानुसार उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियों के शेष रहनेपर जीव सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है। पर भूतबलि भगवान् के उपदेशानुसार, उपशमश्रेणि से उतरता हुआ जीव सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है। ___ इस प्रकार कर्मकाण्ड में प्रथमत: उक्त दोनों मतों के अनुसार उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों की संख्या का निर्देश है । आगे यथाक्रम से मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों का उल्लेख दूसरे मत के अनुसार भी कर दिया है (२६५-७२)। दोनों ग्रन्थगत इस उदयव्युच्छित्ति की प्ररूपणा में विशेषता यह रही है कि धवलाकार ने जहाँ उन दोनों मतों का उल्लेख करके भी गुणस्थान क्रम से उदयव्युच्छित्ति को प्राप्त होनेवाली प्रकृतियों का निर्देश प्रथम मत के अनुसार किया है वहाँ कर्मकाण्ड में उनका उल्लेख दूसरे (यतिवृषभाचार्य के) मत के अनुसार किया गया है। १. धवला पु० ८, पृ०६ २. सूत्र १, १, ३६ (पु० १, पृ० २६१) ३. धवला पु० ६, पृ० ३३१ तथा क० प्रा० चूणि ५४२-४५ (क० पा० सुत्त, पृ० ७२६-२७) ३३२ / षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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