SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेकर शतक क्रम से १,२,३ आदि नौ अंक, ट से ध तक नौ अंक; प से म तक क्रम से १,२, ३,४,५ अंक और य से ह तक आठ अंक ग्रहण किये जाते हैं। अकारादि स्वर, ञ और न से शून्य (०) को ग्रहण किया जाता है। छन्द आदि की दृष्टि से उपयुक्त मात्राओं से किसी अंक को नहीं ग्रहण किया जाता है। इसी नियम के अनुसार ऊपर संकेताक्षरों में ग्यारह अंगों के पदों का प्रमाण प्रकट किया गया है। ___ यह पद्धति धवला में नहीं देखी जाती है । वहाँ उन सबके पदों का प्रमाण संख्यावाचक शब्दों के आश्रय से ही प्रकट किया गया है। (पु० १, १०७ व १०६ आदि तथा पु० ६, पृ० २०३ व २०५ आदि।) १५. जीवकाण्ड में संयममार्गणा के प्रसंग में जिस गाथा (४५६) के द्वारा संयम के स्वरूप को प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि व्रतों के धारण, समितियों के पालन, कषायों के निग्रह, दण्डों के त्याग और इन्द्रियों के जय का नाम संयम है' वह गाथा धवला में संयममार्गणा के ही प्रसंग में 'उक्तं च' इस निर्देश के साथ उदधृत की गई है । वहीं से सम्भवतः उसे जीवकाण्ड में ग्रहण किया गया है। १६. जीवकाण्ड के आगे इसी संयममार्गणा के प्रसंग में सामान्य से परिहारविशुद्धिसंयत का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि जो जन्म से ३० वर्ष तक यथेष्ट भागों का अनुभव करता हुआ सुखी रहा है, जिसने तीर्थकर के पादमूल में पृथक्त्ववर्ष तक रहकर प्रत्याख्यान पूर्व को पढ़ा है, और जो संध्याकाल को छोड़कर दो गव्यूति विहार करता है उसके परिहारविशुद्धि संयम होता है । वहाँ जिस गाथा के द्वारा यह विशेषता प्रकट की गई, वह इस प्रकार है तीसं वासो जम्मे वासपुधत्तं खु तित्थयरमले । पच्चक्खाणं पढिदो संझूणदु गाउअविहारो ॥४७२।। यहाँ गाथा में स्पष्टतया सुखी रहने का उल्लेख नहीं किया गया है, वहाँ 'तीसं वासो जम्मे' इतना मात्र कहा गया है। पर धवला में उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसका उल्लेख स्पष्ट रूप से हुआ है । साथ ही, वहाँ यह विशेष रूप से कहा गया है कि परिहारविशद्धिसंयत सामान्य रूप से या विशेषरूप से-सामायिकछेदोपस्थापनादि के भेदपूर्वक-संयम को ग्रहण करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सम्बन्धित परिमित-अपरिमित प्रत्याख्यान के प्ररूपक प्रत्याख्यानपूर्व को समीचीनतया पढ़ता हुआ सब प्रकार के संशय से रहित हो जाता है, उसके विशिष्ट तप के आश्रय से परिहारविशुद्धि ऋद्धि उत्पन्न हो जाती है व वह तीर्थंकर के पादमूल में परिहारविशुद्धिसंयम को ग्रहण करता है । यहाँ 'पृथक्त्ववर्ष' का उल्लेख नहीं किया गया है, जिसका उल्लेख जीवकाण्ड की उपर्युक्त गाथा में है । इस प्रकार से वह गमनागमनादि रूप सब प्रकार की प्रवृत्ति में प्राणिहिंसा के परिहार में कुशल होता है। यहां यह विशेष स्मरणीय है कि धवला में संयममार्गणा के प्रसंग में जिन आठ गाथाओं १. संयम का यही स्वरूप तत्त्वार्थवार्तिक में भी निर्दिष्ट किया गया है। -६,७,१२, पृ० ३३० २. धवला पु० १, पृ० १४५ ३. धवला पु० १, पृ० ३७०-७१ षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy