SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२. जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जीवकाण्ड में जो गुणस्थानों आदि की प्ररूपणा की गई है वह प्रस्तुत ष० ख० व उसकी धवला टीका से बहुत कुछ प्रभावित है। पर यह भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त जीवकाण्ड में प्रसंगानुसार कुछ ऐसा भी विवेचन किया गया है जो ष० ख० और धवला में नहीं उपलब्ध होता। वहाँ ज्ञानमार्गणा, लेश्यामार्गणा और सम्यक्त्वमार्गणा के प्रसंग में कुछ अन्य प्रासंगिक विषयों की भी चर्चा की गई है । यथा जीवकाण्ड में ज्ञानमार्गणा के प्रसंग में जो पर्याय व पर्यायसमास और अक्षर व अक्षरसमास आदि बीस प्रकार के श्रुतज्ञान की प्ररूपणा की गई है वह पूर्णतया ष०ख० से प्रभावित है क्योंकि वहाँ वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में यह एक गाथासूत्र है-. पज्जय-अक्लर-पद-संघादय-पडिवत्ति-जोगदाराई। पाहुडपाहुड-वत्थू पुश्व समासा य बोद्धव्वा ॥ ----पु० १३, पृ० २६० इस गाथासूत्र का स्वयं मूलग्रन्थकार द्वारा स्पष्टीकरण करते हए पर्यायावरणीय और पर्यायसमासावरणीय आदि श्रुतज्ञानावरणीय के जिन बीस भेदों का निर्देश किया गया है (सूत्र ५,५,४८), तदनुसार ही उनके द्वारा यथाक्रस से आवृत उन पर्याय व पर्यायसमास आदि रूप बीस श्रुतज्ञानभेदों का निर्देश जीवकाण्ड में किया गया है (३१६-१७)। आगे जीव. काण्ड में जो उक्त श्रुतज्ञान भेदों के स्वरूप आदि के विषय में विचार किया गया है (गाथा ३१८-४८) उसका आधार उस सूत्र की धवला टीका रही है । (पु० १३, पृ० २६१-७६) ____ इस प्रकार उक्त ष० ख० सूत्र और उसकी धवला टीका का अनुसरण करते हुए भी यहाँ जीवकाण्ड में अनन्तभागवृद्धि आदि छह वृद्धियों की क्रम से ऊर्वंक, चतुरंक, पंचांक, षडंक, सप्तांक और अष्टांक इन संज्ञाओं का उल्लेख है (गा० ३२४) व तदनुसार ही आगे यथावसर का उपयोग भी किया गया है। यह पद्धति ष० ख० व धवला टीका में नहीं अपनाई १३. जीवकाण्ड में जो ६४ अक्षरों के आश्रय से श्रतज्ञान के अक्षरों के उत्पादन की प्रकिया का निर्देश है (३५१-५२) उसका विवेचन धवला में विस्तार से किया है। (पु० १३, पृ० २४७-६०) इस प्रसंग में धवला में संयोगाक्षरों की निर्देशक जो 'एय? च' आदि गाथा उदधृत है वह जीवकाण्ड में गाथांक ३५३ में उपलब्ध है। __ आगे धवला में मध्यम पद सम्बन्धी अक्षरों के प्रमाण की प्ररूपक जो 'सोलससद चोत्तीसं' आदि गाथा उद्धृत है (पु० १३, पृ० २६६) वह भी जीवकाण्ड में गाथा ३३५ के रूप में उपलब्ध होती है। १४. जीवकाण्ड में इस प्रसंग में यह एक विशेषता देखी गई है कि वहाँ आचारादि ग्यारह अंगों और बारहवें दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत परिकर्म आदि के पदों का प्रमाण संकेतात्मक अक्षरों में प्रकट किया गया है । (गाथा ३५६ व ३६२-६३) जैसे-आचारादि ११ अंगों के समस्त पदों का प्रमाण ४१५०२००० है। इसका संकेत 'वापणन रनोनानं' इन अक्षरों में किया है। साधारणतः इसके लिए यह नियम है कि क से १. पंचांक, ऊर्वक व अष्टांक संज्ञाओं का उल्लेख धवला में वृद्धिप्ररूपणा' के प्रसंग में देखा जाता है। पु० १२, पृ० २१७, २१८ व २२० आदि । ३०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy